Press ESC to close
Or check our popular categories....
भारत का सम्पूर्ण इतिहास 🔥| Complete Indian History in Hindi in 75+Chapters
Indian History in Hindi के इस पृष्ठ में आप पायेंगे भारत का इतिहास ( Indian History in Hindi ) नोट्स, जो कि हिन्दी में हैं जिन्हें हमने 4 भागों में बांटा है, प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक भारत और स्वतन्त्रता आंदोलन |
ये सभी विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए बेहद उपयोगी हैं, नोट्स को बनाने का मकसद तेजी से रिविज़न के साथ साथ सभी उपयोगी तथ्यों को भी रखना है ताकि कोई भी तथ्य ना छूटे ये इन सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए उपयोगी है जैसे – UPSC Exam, UPPSC, SSC CGL, उम्मीद है भारतीय इतिहास ( Indian History in Hindi ) के ये नोट्स आपके लिए उपयोगी साबित होंगे ! कई सारे इतिहास के नोट्स Download के लिए भी उपलब्ध हैं, शीघ्र ही और भी नोट्स उपलब्ध होंगे !
प्राचीन भारत का इतिहास | Ancient History in Hindi
मध्यकालीन इतिहास | medieval history in hindi, आधुनिक भारत का इतिहास | modern history in hindi, स्वाधीनता संग्राम.
Download PDF Indian History in Hindi
- (56 Facts PDF) प्राचीन इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण तथ्य
- NCERT History eBook in Hindi – Download PDF
- प्राचीन इतिहास | Handwritten Notes Hindi PDF Download
इतिहास के महत्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर (History in Hindi)
- साहित्यिक स्रोतों से सबसे ज्यादा पूछे जाने वाले 20 सवाल
- क्या 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन अहिंसक था ?
- भारत में 19वीं शताब्दी के जनजातीय विद्रोह के क्या कारण थे ?
- जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन पोषण कैसे हुआ है ?
- वैदिक सभ्यता में धर्म और ऋत से क्या तात्पर्य था ?
75+ History Important Questions in Hindi
- कैबिनेट मिशन को प्रधानमंत्री एटली ने भारत कब भेजा ? उत्तर- 19 फरवरी,1946
- बीजक में किसका उपदेश संग्रहित है? उत्तर- कबीर का
- कैपटन हाकिन्स किस मुगल शासक के दरबार में आया था ? उत्तर- जहाँगीर
- भारत आने वाले प्रथम यूरोपीय कौन था? उत्तर- पुर्तगाल
- भारत में रेलवे की शुरुआत कब हुई थी? उत्तर- 1853 ई. में
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्षा कौन थीं? उत्तर- एनी बेसेंट
- भारत के संविधान का पिता किसे कहा जाता है? उत्तर- डॉ. बी. आर अम्बेडकर
- प्रसिद्ध विरुपाक्ष मंदिर कहाँ स्थित है? उत्तर- हम्पी में
- सिक्किम भारत का हिस्सा कब बना? उत्तर- 1975 में
- राज्य पुर्नगठन आयोग की स्थापना कब हुआ?उत्तर- 1953 में
- हड़प्पा सभ्यता किस युग की सभ्यता है? उत्तर- कांस्य युग
- सिंधु घाटी के निवासियों को किस धातु का ज्ञान नहीं था? उत्तर– लोहा, note :- उन्हें सोना,चांदी और तांबा धातु का ज्ञान था
- इण्डिका की रचना किसने की? उत्तर- मैगस्थनीज ने
- गुप्तों की काल में कौन चीनी यात्री भारत आया? उत्तर- फाह्यान
- महाभारत की रचना किसने की ? उत्तर- वेद व्यास
- महाभारत का युद्ध कितने दिन चला? उत्तर– 18 दिन तक
- कुरु वंश की राजधानी कहाँ थी ? उत्तर- हस्तिनापुर में
- त्रिपिटक साहित्य संबंधित है? उत्तर– बौद्ध धर्म से
- तृतीय बौद्ध संगीति किसके शासन काल में हुआ? उत्तर- अशोक के समय में
- आईन-ए-अकबरी’ एवं ‘अकबरनामा’ की रचना किसने की? उत्तर-अबुल फजल
- अकबर का वित्तिय मंत्री था? उत्तर- टोडरमल
- पुराणों की संख्या कितनी है?उत्तर- 18
- तम्बाकू का सेवन सबसे पहले किस मुगल सम्राट ने किया? उत्तर-अकबर ने
- पानीपत का प्रथम युद्ध किस वर्ष हुआ था ? उत्तर– 1526 ई. में
- शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह स्थित है? उत्तर- अजमेर में
- अकबर ने किस वर्ष दिन-ए इलाही धर्म चलाया? उत्तर- 1582 ई.
- स्थापत्य काल का सर्वाधिक विकास किसके काल में हुआ? उत्तर- शाहजहाँ के काल में
- विजयनगर सम्राज्य की स्थापना किसने की? उतर- हरिहर और बुक्का ने
- गोपुरम से आप क्या समझते है? उत्तर- मंदिर का प्रवेश द्वारा
- हम्पी नगर किस राज्य से संबंधित है? उत्तर- विजयनगर
- विजयनगर के शासको ने अपने आप को कहा? उत्तर– राय
- तकवन्दी (ननकाना साहिब) किसका जन्म स्थान हैं? उत्तर– नानक का
- उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन का आरम्भ किस संत ने शुरू किया?उत्तर- रामानंद
- भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की स्थापना कब हुई? उत्तर- 1885 में
- राबिया कौन-सी संत थी उत्तर- रहस्यवादी
- इब्नबतूता की देश का यात्री था? उत्तर– मोरक्को
- अलबरुद्दीन किसके साथ भारत आया था ? उत्तर- महमूद गजनी
- संथाल विद्रोह का नेता था? उत्तर- सिंद्धु और कान्हू
- दामिन-ए-कोह क्या था?उत्तर– भू-भाग
- स्थायी बंदोबस्त कहा लागू किया गया? उत्तर-बंगाल में
- इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कब हुई?उत्तर- 1600 ई.में
- स्थायी बंदोबस्त किससे संबंधित है? उत्तर– वेलेजली
- संथाल विद्रह कब हुआ था ? उत्तर- 1855 में
- व्यपगत के सिंद्धांत का सम्बन्ध किससे है? उत्तर-लार्ड डलहौजी
- 1857 की क्रांति आरम्भ हुई? उत्तर- 10 मई,1857 से
- बिहार में 1857 की क्रांति का नेता कौन था? उत्तर- कुंवर सिंह
- कलकत्ता में अंग्रेजों की किलेबंद बस्ती का नाम था?उत्तर-फोर्ड विलियन
- गेट वे ऑफ इंडिया का निर्माण कब हुआ? उत्तर-1911 ई. में
- दिल्ली चलो का नारा किसने दिया? उत्तर- सुभाषचन्द्र बोस
- जलियांवाला बाग हत्या कांड कब हुआ? उत्तर- 1919 में
- काला कानून किसे कहा गया ? उत्तर- रोलट एक्ट को
- द्वितीय विश्व युद्ध की घोषणा कब हुई और किसने की? उत्तर-3 सितम्बर,1939 में ब्रिटेन ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की
- संविधान सभा की पहली बैठक कब हुई?उत्तर- 9 दिसम्बर,1946 को
- भारतीय संविधान सभा पर हस्ताक्षर कब हुआ?उत्तर- 24 जनवरी,1950 को
- 1917 में रूस में समाजवादी राज्य की स्थापना किसने की? उत्तर- लेलिन ने की
- भारत का प्रथम गृह मंत्री कौन था? उत्तर- सरदार बल्लभ भाई पटेल
- सीमान्त गांधी के नाम से किसे जाना जाता है?उत्तर- ख़ान अब्दुल गफ्फार खाँ को सीमान्त गांधी के नाम से जाना जाता है
- कश्मीर के भारत में विलय पत्र पर किसने हस्ताक्षर किया था? उत्तर- राजा हरीसिंह
- राज्यो से पुनर्गठन आयोग के अश्याक्ष कौन था?उत्तर- न्यामूर्ति फजल अली
- हड़प्पा किस नदी के किनारे स्थित है? उत्तर– रावी नदी के किनारे
- कालीबंगान स्थिति है? उत्तर- राजस्थान में
- पूना समझौता किस वर्ष हुआ? उत्तर- 1932 ई. में
- बिहार में चंपारण सत्या ग्रह कब हुआ? उत्तर- 1917 ई. में
- डांडी किस राज्य में स्थित है? उत्तर- गुजरात में
- 1920 ई. में कौन-सा आंदोलन हुआ? उत्तर- असहयोग आंदोलन
- स्वतंत्र भारत के अंतिम गवर्न जनरल कौन था?उत्तर-सी.राजगोपालाचारी
- मुस्लिम लीग की स्थापना किस वर्ष हुई? उत्तर- 1906 में
- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम कब पारित हुआ? उत्तर- 18 जुलाई 1947 को
- भारतीय संविधान के अनुसार सम्प्रभुता निहित है?उत्तर- राष्ट्रपति में
- भारतीय पुरातत्व के पिता किसे कहा जाता है? उत्तर- अलेक्जेंडर कनिघम
- यूरोप का समुंद्र गुप्त कौन था? उत्तर- नेपोलियन
- दिल्ली से दौलताबाद किस शासक ने अपनी राजधानी परिवर्तित की ?उत्तर- मुहम्मद तुगलक
- विजयनगर सम्राज्य द्वारा असैनिक और सैनिक सेवा के लिए दिया जाने वाला भूमिदान की कहलाता है? उत्तर– अमरभ
नेहरू के निर्धन के बाद उनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कों बना?उत्तर- लालबहादुर शास्त्री
भारत में आपातकाल कब लगाया गयाउत्तर- 25 जून,1975 को, भारत में संविधान के किस अनुच्छेद के तहत वित्तिय आपातकाल लगाया गयाउत्तर- अध्यादेश-360, भारतीय इतिहास की शुरुआत कब हुई.
भारत का इतिहास कई सहस्र वर्ष पुराना माना जाता है । 65,000 साल पहले, पहले आधुनिक मनुष्य, या होमो सेपियन्स, अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे, जहाँ वे पहले विकसित हुए थे। सबसे पुराना ज्ञात आधुनिक मानव आज से लगभग 30,000 वर्ष पहले दक्षिण एशिया में रहता है।
भारत का इतिहास कितने प्रकार का है?
प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक भारत और स्वतन्त्रता आंदोलन
Sources – Wikipedia
- हमारा टेलीग्राम चैनल Join करें !
- हमारा YouTube Channel, StudMo Subscribe करें !
18 Comments
Yah post competitive exam ki preparation karne walo ke liye bahut helful hai…
Thanks for the information sir
Verry good tripst by study center
Sir ji apne jo topic select kiye hai wo elsare reet me available hai isliye… NCERT ki aisi koi Book jisme prachin Bharat, Madhyakalin bharat,nd aadhunik bharat ki Book ya fir PDF Hindi medium me ho to PLZZ send me sir ji…. Or tino ki NCERT me Alag alag book milti ho to muje jarur bataye 🙏🙏
Indian history
Nice Post of history INDIA
Sir ji apne jo topic select kiye hai wo elsare reet me available hai isliye… NCERT ki aisi koi Book jisme prachin Bharat, Madhyakalin bharat,nd aadhunik bharat ki Book ya fir PDF Hindi medium me ho to PLZZ send me sir ji…. Or tino ki NCERT me Alag alag book milti ho to muje jarur bataye 🙏🙏
Sir ji apne dehli sultanet or bahmni A-Z topic send karo
Nice to meet you sir
Nice post history 👍❤sir
Leave a Reply
Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.
भारतीय इतिहास पर निबंध | Essay on Indian History | Hindi
भारतीय इतिहास पर निबंध | Essay on Indian History in Hindi language!
Essay # 1. भारतीय इतिहास का भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geographical Background of Indian History):
हिमालय पर्वत के दक्षिण तथा हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित एशिया महाद्वीप का विशाल प्रायद्वीप भारत कहा जाता है । इसका विस्तृत भूखण्ड, जिसे एक उपमहाद्वीप कहा जाता है, आकार में विषम चतुर्भुज जैसा है ।
यह लगभग 2500 मील लम्बा तथा 2000 मील चौड़ा है । रूस को छोड़कर विस्तार में यह समस्त यूरोप के बराबर है । यूनानियों ने इस देश को इण्डिया कहा है तथा मध्यकालीन लेखकों ने इस देश को हिन्द अथवा हिन्दुस्तान के नाम से सम्बोधित किया है ।
भौगोलिक दृष्टि से इसके चार विभाग किये जा सकते हैं:
(i) उत्तर का पर्वतीय प्रदेश:
यह तराई के दलदल वनों से लेकर हिमालय की चोटी तक विस्तृत है जिसमें कश्मीर, काँगड़ा, टेहरी, कुमायूँ तथा सिक्किम के प्रदेश सम्मिलित हैं ।
(ii) गंगा तथा सिन्धु का उत्तरी मैदान:
इस प्रदेश में सिन्धु तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियाँ, सिन्ध तथा राजस्थान के रेगिस्तानी भाग तथा गंगा और यमुना द्वारा सिंचित प्रदेश सम्मिलित हैं । देश का यह भाग सर्वाधिक उपजाऊ है । यहाँ आर्य संस्कृति का विकास हुआ । इसे ही ‘आर्यावर्त’ कहा गया है ।
(iii) दक्षिण का पठार:
ADVERTISEMENTS:
इस प्रदेश के अर्न्तगत उत्तर में नर्मदा तथा दक्षिण में कृष्णा और तुड्गभद्रा के बीच का भूभाग आता है ।
(iv) सुदूर दक्षिण के मैदान:
इसमें दक्षिण के लम्बे एवं संकीर्ण समुद्री क्षेत्र सम्मिलित हैं । इस भाग में गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी नदियों के उपजाऊ डेल्टा वाले प्रदेश आते हैं । दक्षिण का पठार तथा सुदूर दक्षिण का प्रदेश मिलकर आधुनिक दक्षिण भारत का निर्माण करते हैं । नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ, विन्धय तथा सतपुड़ा पहाड़ियों और महाकान्तार के वन मिलकर उत्तर भारत को दक्षिण भारत से पृथक् करते हैं ।
इस पृथकता के परिणामस्वरूप दक्षिण भारत आर्य संस्कृति के प्रभाव से मुक्त रहा, जबकि उत्तर भारत में आर्य संस्कृति का विकास हुआ । दक्षिण भारत में एक सर्वथा भिन्न संस्कृति विकसित हुई जिसे ‘द्रविण’ कहा जाता है । इस संस्कृति के अवशेष आज भी दक्षिण में विद्यमान हैं ।
प्रकृति ने भारत को एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई प्रदान की है । उत्तर में हिमालय पर्वत एक ऊंची दीवार के समान इसकी रक्षा करता रहा है तथा हिन्द महासागर इस देश को पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण से घेरे हुए हैं । इन प्राकृतिक सीमाओं द्वारा बाह्य आक्रमणों से अधिकांशत: सुरक्षित रहने के कारण भारत देश अपनी एक सर्वथा स्वतन्त्र तथा पृथक् सभ्यता का निर्माण कर सका है ।
भारतीय इतिहास पर यहाँ के भूगोल का गहरा प्रभाव-पड़ा है । यहां के प्रत्येक क्षेत्र की अपनी अलग कहानी है । एक ओर ऊँचे-ऊँचे पर्वत हैं तो दूसरी ओर नीचे के मैदान हैं, एक ओर अत्यन्त उपजाऊ प्रदेश है तो दूसरी ओर विशाल रेगिस्तान है । यहाँ उभरे पठार, घने वन तथा एकान्त घाटियाँ हैं । एक ही साथ कुछ स्थान अत्यन्त उष्ण तथा कुछ अत्यन्त शीतल है ।
विभिन्न भौगोलिक उप-विभागों के कारण यहाँ प्राकृतिक एवं सामाजिक स्तर की विभिन्नतायें दृष्टिगोचर होती हैं । ऐसी विषमता यूरोप में कहीं भी दिखायी नहीं देती हैं । भारत का प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र एक विशिष्ट इकाई के रूप में विकसित हुआ है तथा उसने सदियों तक अपनी विशिष्टता बनाये रखी है ।
इस विशिष्टता के लिये प्रजातीय तथा भाषागत तत्व भी उत्तरदायी रहे हैं । फलस्वरूप सम्पूर्ण देश में राजनैतिक एकता की स्थापना करना कभी भी सम्भव नहीं हो सका है, यद्यपि अनेक समय में इसके लिये महान शासकों द्वारा प्रयास किया जाता रहा है । भारत का इतिहास एक प्रकार से केन्द्रीकरण तथा विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियों के बीच निरन्तर संघर्ष की कहानी है ।
देश की विशालता तथा विश्व के शेष भागों से इसकी पृथकता ने अनेक महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न किये है । भारत के अपने आप में एक विशिष्ट भौगोलिक इकाई होने के कारण भारतीय शासकों तथा सेनानायकों ने देश के बाहर साम्राज्य विस्तृत करने अथवा अपनी सैनिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति करने का कभी कोई प्रयास नहीं किया, बल्कि उन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार भारत में ही किया ।
सुदूर दक्षिण के चोलों का उदाहरण इस विषय में एक अपवाद माना जा सकता है । अति प्राचीन समय से यहाँ भिन्न-भिन्न जाति, भाषा, धर्म, वेष-भूषा तथा आचार-विचार के लोग निवास करते हैं । किसी भी बाहरी पर्यवेक्षक को यहाँ की विभिन्नतायें खटक सकती हैं ।
परन्तु इन वाह्य विभिन्नताओं के मध्य एकता दिखाई देती है जिसकी कोई भी उपेक्षा नहीं कर सकता । फलस्वरूप ‘विभिन्नता में एकता’ (Unity in Diversity) भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता बन गयी है । देश की समान प्राकृतिक सीमाओं ने यहाँ के निवासियों के मस्तिष्क में समान मातृभूमि की भावना जागृत किया है । मौलिक एकता का विचार यहाँ सदैव बना रहा तथा इसने देश के राजनैतिक आदर्शों को प्रभावित किया ।
यद्यपि व्यवहार में राजनैतिक एकता बहुत कम स्थापित हुई तथापि राजनैतिक सिद्धान्त के रूप में इसे इतिहास के प्रत्येक युग में देखा जा सकता है । सांस्कृतिक एकता अधिक सुस्पष्ट रही है । भाषा, साहित्य, सामाजिक तथा धार्मिक आदर्श इस एकता के प्रमुख माध्यम रहे हैं । भारतीय इतिहास के अति-प्राचीन काल से ही हमें इस मौलिक एकता के दर्शन होते हैं ।
महाकाव्य तथा पुराणों में इस सम्पूर्ण देश को ‘भारतवर्ष’ अर्थात् भारत का देश तथा यहाँ के निवासियों को ‘भारती’ (भरत की सन्तान) कहा गया है । विष्णुपुराण में स्पष्टत: इस एकता की अभिव्यक्ति हुई है- “समुद्र के उत्तर में तथा हिमालय के दक्षिण में जो स्थित है वह भारत देश है तवा वहाँ की सन्तानें ‘भारती’ हैं ।”
प्राचीन कवियों, लेखकों तथा विचारकों के मस्तिष्क में एकता की यह भावना सदियों पूर्व से ही विद्यमान रही है । कौटिल्यीय अर्थशास्त्र में कहा गया है कि-“हिमालय में लेकर समुद्र तक हजार योजन विस्तार वाला भाग चक्रवर्ती राजा का शासन क्षेत्र होता है ।” यह सर्वभौम सम्राट की अवधारणा भारतीय सम्राटों को अत्यन्त प्राचीन काल से ही प्रेरणा देती रही है ।
भारतीयों की प्राचीन धार्मिक भावनाओं एवं विश्वासों से भी इस सारभूत एकता का परिचय मिलता है । यहाँ की सात-पवित्र नदियाँ- गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु तथा कावेरी, सात पर्वत- महेन्द्र, मलय, सह्या, शक्तिमान, ऋक्ष्य, विन्ध्य तथा पारियात्र तथा सात नगरियों- अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्ति, पुरी तथा द्वारावती, देश के विभिन्न भागों में बसी हुई होने पर भी देश के सभी निवासियों के लिये समान रूप से श्रद्धेय रही हैं ।
वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रन्थों का सर्वत्र सम्मान है तथा शिव और विष्णु आदि देवता सर्वत्र पूजे जाते है।, यद्यपि यहीं अनेक भाषायें है तथापि वे सभी संस्कृत से ही उद्भूत अथवा प्रभावित है । धर्मशास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था भी सर्वत्र एक ही समान है । वर्णाश्रम, पुरुषार्थ आदि सभी समाजों के आदर्श रहे है ।
प्राचीन समय में जबकि आवागमन के साधनों का अभाव था, पर्यटक, धर्मोपदेशक, तीर्थयात्री, विद्यार्थी आदि इस एकता को स्थापित करने में सहयोग प्रदान करते रहे है । राजसूय, अश्वमेध आदि यज्ञों के अनुष्ठान द्वारा चक्रवर्ती पद के आकांक्षी सम्राटों ने सदैव इस भावना को व्यक्त किया है कि भारत का विशाल भूखण्ड एक है । इस प्रकार विभिन्नता के बीच सारभूत एकता भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता बनी हुई है ।
Essay # 2. भारतीय इतिहास का नृजातीय तत्व (Ethnicity of Indian History):
आदि काल से ही भारत में विभिन्न जातियाँ निवास करती थीं जिनकी भाषाओं, रहन-सहन, सामाजिक-धार्मिक परम्पराओं में भारी विषमता थीं । भारत में नृजातीय तत्वों की पहचान प्रधानत: भौतिक, भाषाई तथा सांस्कृतिक लक्षणों पर आधारित है । नृतत्व विज्ञान मानव की शारीरिक बनावट के आधार पर उसकी प्रजाति का निर्धारण करता है ।
इसके दो प्रधान मानक है:
i. सिर सम्बन्धी
ii. नासिका सम्बन्धी
हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि प्राचीन जनजाति में लम्बे तथा चौड़े दोनों ही सिरों वाले लोग विद्यमान थे जैसा कि प्राचीन कंकालों एवं कपालों से इंगित होता है । भारत में प्रागैतिहासिक मानवों के प्रस्तरित अवशेष अत्यल्प है किन्तु नृतत्व एवं भाषा विज्ञान की सहायता से यहाँ रहने अथवा आव्रजित होने चाली प्रजातियों तथा भारतीय संस्कृति के विकास में उनके योगदान का अनुमान लगाया गया है । बी॰ एस॰ ने प्रागैतिहासिक अस्थिपंजरों का अध्ययन करने के उपरान्त यहाँ की आदिम जातियों को छ भागों में विभाजित किया है ।
a. नेग्रिटो
b. प्रोटोआस्ट्रलायड
c. मंगोलियन
d. मेडीटरेनियन (भूमध्य सागरीय)
e. पश्चिमी ब्रेक्राइसेफलम
f. नार्डिक ।
भाषाविदों ने उपयुक्त प्रजातियों को चार भाषा समूहों के अन्तर्गत समाहित किया है:
2. द्रविडियन
3. इण्डो-यूरोपीयन
4. तिब्बतो-चायनीज
इनका विवरण इस प्रकार है:
a. नेग्रिटो:
यह भारत की सबसे प्राचीन प्रजाति थी । अब यह स्वतन्त्र रूप से तो कहीं नहीं मिलती लेकिन इसके तत्व अण्डमान निकोवार, कोचीन तथा त्रावनकोर की कदार एवं पलियन जनजातियों, असम के अंगामी नागाओं, पूर्वी बिहार की राजमहल पहाड़ियों में बसने वाली बांगड़ी समूह तथा ईरुला में देखे जा सकते हैं ।
ये नाटे कद, चौड़े सिर, मोटे होंठ, चौड़ी नाक तथा काले रंग के होते हैं । इनकी प्रमुख देन धनुष-बाण की खोज एवं आदिवासियों में मिलने वाले कुछ धार्मिक आचारों तथा दो-चार शब्दों तक सीमित है । हदन का विचार है कि बट-पीपल पूजा, मृतक की आत्मा और गर्भाधान सम्बन्धी मान्यता, स्वर्ग पथ पर दानवों की पहरेदारी सम्बन्धी विश्वास आदि नेग्रिटो प्रभाव से ही प्रचलित हुए ।
b. प्रोटोआस्ट्रलायड:
ये भारतीय जनसंख्या के आधारभूत अंग थे तथा उनकी बोली आस्तिक भाषा समूह की थी । इसका कुछ उदाहरण आदिम कबीलों की मुण्डा बोली में आज तक पाया जाता है । तिन्वेल्ली से प्राप्त प्रागैतिहासिक कपालों में इस प्रजाति के तत्व मिलते है ।
संस्कृत साहित्य में उल्लिखित ‘निषाद’ जाति इसी वर्ग की है । ये छोटे कद, लम्बे सिर, चौड़ी नाक, मोटे होंठ, काली-भूरी आंखें, घुंघराले बाल एवं चाकलेटी त्वचा वाले होते हैं । अधिकांश दक्षिणी भारत तथा मध्य प्रदेश की कुछ जनजातियों में इस प्रजाति के लक्षण पाये जाते हैं ।
इन्हें मृदभाण्ड बनाने तथा कृषि का ज्ञान था । चावल, कदली, नारियल, कपास आदि का ज्ञान था । मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व में विश्वास, धार्मिक कार्यों में ताम्बूल, सिन्दूर और हल्दी का प्रयोग, लिंगोपासना, निछावर प्रथा का प्रारम्भ, चन्द्रमा की कलाओं के अनुसार तिथिगणना, नाग, मकर, हाथी, कच्छप आदि की पूजा का प्रारम्भ भारतीय संस्कृति को इस प्रजाति की प्रमुख देन स्वीकार की जाती है ।
c. मंगोलायड:
ये छोटी नाक, मोटे होंठ, लम्बे-चौड़े सिर, पीले अथवा भूरे चेहरे वाले होते थे । इस जनजाति में पूर्व की ओर से भारत में प्रवेश किया । इस प्रजाति के तत्व मीरी, नागा, बोडो, गोंड, भोटिया तथा बंगाल-असम की जातियों में मिलते है । इनकी भाषा चीनी-तिब्बती समूह की भाषा से मिलती है ।
संभवत: मंगोल जाति के प्रभाव से ही भारतीय संस्कृति में तंत्र, वामाचार, शक्ति-पूजा एवं कुछ अश्लील धार्मिक कृत्यों का आविर्भाव हुआ । मोहेनजोदड़ो की कुछ छोटी-छोटी मृण्मूर्तियों तथा कपालों में इस जाति के शारीरिक लक्षण दिखाई देते है ।
d. मेडीटरेनियन (भूमध्य-सागरीय):
इस प्रजाति की तीन शाखायें भारत में आई तथा अन्तर्विवाह के फलस्वरूप परस्पर घुल-मिल गयीं । मिश्रित रूप से उनके वंशज बड़ी संख्या में भारत में विद्यमान हैं । इनकी एक शाखा कन्नड, तमिल, मलयालम भाषा-भाषी प्रदेश में, दूसरी पंजाब तथा गंगा की ऊपरी घाटी में तथा तीसरी सिन्ध, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाये जाते हैं ।
सामान्यत: भूमध्यसागरीय प्रजाति का सम्बन्ध द्रविड़ जाति से बताया जाता है । इसके अस्थि-पञ्जर सैन्धव सभ्यता में भी मिलते हैं । ये लम्बे सिर, मध्यम कद, चौड़े मुँह, पतले होंठ, घुँघराले बाल, भूरी त्वचा वाले होते है । इनकी प्रमुख देन है-नौ परिवहन, कृषि एवं व्यापार-वाणिज्य, नागर सभ्यता का सूत्रपात आदि ।
कुछ विद्वान् द्रविडों को ही सैन्धव सभ्यता का निर्माता मानते है किन्तु यह संदिग्ध है । भाषाविदों का विचार है कि भारत में भारोपीय भाषा में जो परिवर्तन दिखाई देता है वह भूमध्यसागरीय अथवा द्रविड़ सम्पर्क का ही परिणाम था ।
e. पश्चिमी ब्रेकाइसेफलस:
इनकी भी तीन शाखायें है- अल्पाइन, डिनारिक तथा आर्मीनायड । यूरोप में अल्पस पर्वत के समीपवर्ती क्षेत्र में रहने के कारण इस प्रजाति को अल्पाइन कहा जाता है । गुजरात, बिहार, उत्तर तथा मध्य भारत में यह प्रजाति पाई जाती है ।
ये चौड़े कन्धे, गहरी छाती, लम्बी व चौड़ी टाँग, चौड़ा सिर, छोटी नाक, पीली त्वचा वाले होते है । इनकी डिनारिक शाखा बंगाल, उड़ीसा, काठियावाड़, कन्नड़ तथा तमिल भाषी क्षेत्र में रहती है । तीसरी शाखा आर्मीनायड है जिसके तत्व मुम्बई के पारसियों में दिखाई देते है । भारतीय संस्कृति को इनका योगदान स्पष्ट नहीं है ।
f. नार्डिक:
इस प्रजाति को आर्यों का प्रतिनिधि तथा हिम सभ्यता का जनक माना जाता है । ये लम्बे सिर, श्वेत व गुलाबी त्वचा, नीली आँखें, सीधे एवं घुंघराले वाली वाले लक्षणों से युक्त थे । सर्वप्रथम यह प्रजाति पंजाब में वसी होगी तथा वहाँ से धीरे- धीरे देश के अन्य भागों में फैल गयी । किन्तु ‘आर्य’ वस्तुत एक भाषिक पद है जिससे भारोपीय मूल की एक भाषा-समूह का पता चलता है । यह नृवंशीय पद नहीं है । अत: आर्य आव्रजन की धारणा भ्रामक है ।
Essay # 3. भारतीय इतिहास के प्रजाति की परिकल्पना (Species Hypothesis of Indian History):
कुछ विद्वानों की मान्यता है कि भारत में सभ्यता का जन्म नहीं हुआ, यहाँ तो बाहर से ही लोग आये और बस गये । संस्कृत भारत की भाषा नहीं थी, यह तो मध्य एशिया से भारत में आई थी । मैक्समूलर तथा सर विलियम जोन्स के अनुसार ‘आर्य’ प्रजाति भारत की नहीं थी । उन्हीं के अनुकरण पर कुछ तथाकथित भारतीय प्रगतिवादी इतिहासकारों ने आयी को घुमक्कड़, तथा आक्रमणकारी सिद्ध कर दिया । द्रविड़ों को भी भूमध्यसागरीय माना गया ।
इलियट स्मिथ का तो कहना कि विश्व की समस्त सभ्यतायें मिस में जन्मा तथा वहीं से अन्य देशों में फैली थीं । किन्तु पश्चिमी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित ‘प्रजाति का सिद्धान्त’ अत्यन्त भयावह एवं कुटिलतापूर्ण है । यूरोपीय ईसाई मिशनरियों तथा विद्वानों ने भारत को सदा औपनिवेशिक दृष्टि से देखा ।
यह सिद्ध करने के लिये अनेक तर्क गढ़े गये कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति का अपना कोई वैशिष्ट्य नहीं है तथा ईसा के 2000 वर्ष पहले यूरोप तथा उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों ही भारत में विभिन्न मार्गों से आई तथा अपनी सभ्यता स्थापित किया ।
पाश्चात्य विद्वानों ने ‘आर्य’ तथा द्रविड शब्दों को प्रजाति तथा स्थानवाची माना जिसका प्रतिकार भारतीय विद्वानों ने नहीं किया । भारत तथा उसकी संस्कृति को जाति, प्रजाति, नृवंश, स्थान, भाषा, भूगोल आदि के आधार पर विभाजित करने का जो षड्यन्त्र अंग्रेजों ने अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये रचा था उसे ही प्रगतिवादी विद्वानों ने प्रायः मान्यता प्रदान कर दी तथा ‘संस्कृति’ शब्द की मूल अवधारणा को ही आयातित स्वीकार कर लिया गया ।
‘आर्य’ तथा ‘द्रविड़’ जैसे शब्द प्रजातिगत न होकर गुणवाचक है और इसी अर्थ में इनका प्रयोग वैदिक साहित्य में हुआ है । ‘आर्य’ का अर्थ है- बौद्धिक प्रतिभा से सम्पन्न श्रेष्ठ पुरुष, स्वामी, विद्वान्, समाज का अग्रणी वर्ग आदि । इसी प्रकार द्रविड़ का अर्थ है- समृद्ध वर्ग, धन-धान्य से सम्पन्न व्यक्ति, ऐश्वर्यवान् पुरुष आदि । अत: इन शब्दों के आधार पर प्राचीन भारत में जाति, प्रजाति, नृवंश आदि की परिकल्पना करना उचित नहीं होगा ।
Essay # 4. भारतीय इतिहास जानने के साधन (Tools to know About Indian History):
भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास अत्यन्त गौरवपूर्ण रहा है । परन्तु दुर्भाग्यवश हमें अपने प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये उपयोगी सामग्री बहुत कम मिलती है । प्राचीन भारतीय साहित्य में ऐसे ग्रन्थों का प्रायः अभाव-सा है जिन्हें आ आधुनिक परिभाषा में “इतिहास” की संज्ञा दी जाती है ।
यह भी सत्य है कि हमारे यहाँ हेरोडोटस, थ्यूसीडाइडीज अथवा लिवी जैसे इतिहास-लेखक नहीं उत्पन्न हुए जैसा कि यूनान, रोम आदि देशों में हुए । कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने यह आरोपित किया कि प्राचीन भारतीयों में इतिहास-बुद्धि का अभाव था ।
लोएस डिकिंसन (Lowes Dickinson) के अनुसार हिन्दू इतिहासकार नहीं थे । भारत में मनुष्य प्रकृति के समक्ष अपने को तुच्छ और असमर्थ पाता है । फलस्वरूप उसमें नगण्यता तथा जीवन की निस्सारता जन्म लेती है, उसे जीवन की अनुभूति एक भयानक दु:स्वप्न के रूप में होती है और दु:स्वप्न का कोई इतिहास नहीं होता है ।
विन्दरनित्स की मान्यता है कि भारतीयों ने मिथक, आख्यान तथा इतिहास में कभी भी स्पष्ट विभेद नहीं किया और भारत में इतिहास रचना काव्य रचना से ऊपर नहीं उठ सकी । मैकडानल्ड के अनुसार भारतीय साहित्य का दुर्बल पक्ष इतिहास है जिसका यहाँ अस्तित्व ही नहीं था ।
इसी विचारधारा का समर्थन एलफिन्स्टन, फ्लीट, मैक्समूलर, वी. ए स्मिथ जैसे विद्वानों ने भी किया है । 11वीं शती के मुस्लिम लेखक अल्वरूनी इससे मिलता-जुलता विचार व्यक्त करते हुए लिखता है- हिन्दू लोग घटनाओं के ऐतिहासिक कम की ओर बहुत अधिक ध्यान नहीं देते । घटनाओं के तिथिक्रमानुसार वर्णन करने में वे बड़ी लापरवाही बरतते है ।
किन्तु भारतीयों के इतिहास विषयक गान पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा लगाया गया उपरोक्त आरोप सत्य से परे है । वास्तविकता यह है कि प्राचीन भारतीयों ने इतिहास को उस दृष्टि से नहीं देखा जिससे कि आज के विद्वान् देखते है । उनका दृष्टिकोण पूर्णतया धर्मपरक था ।
उनकी दृष्टि में इतिहास साम्राज्यों अथवा सम्राटों के उत्थान अथवा पतन की गाथा न होकर उन समस्त मूल्यों का संकलन-मात्र था जिनके ऊपर मानव-जीवन आधारित है । अतः उनकी बुद्धि धार्मिक और दार्शनिक ग्रन्थों की रचना में ही अधिक लगी, न कि राजनैतिक घटनाओं के अंकन में ।
तथापि इसका अर्थ यह नहीं है कि प्राचीन भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना का भी अभाव था । प्राचीन ग्रन्थों के अध्ययन से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ के निवासियों में अति प्राचीन काल से ही इतिहास-बुद्धि विद्यमान रही । वैदिक साहित्य, बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में अत्यन्त सावधानीपूर्वक सुरक्षित आचार्यों की सूची (वंश) से यह बात स्पष्ट हो जाती है ।
वंश के अतिरिक्त गाथा तथा नाराशंसी साहित्य, जो राजाओं तथा ऋषियों के स्तुतिपरक गीत है, से भी सूचित होता है कि वैदिक युग में इतिहास लेखन की परम्परा विद्यमान थी । इसके अतिरिक्त ‘इतिहास तथा पुराण’ नाम से भी अनेक रचनायें प्रचलित थी । इन्हें ‘पंचम वेद’ कहा गया है ।
सातवीं शती के चीनी यात्री हुएनसांग ने लिखा है कि भारत के प्रत्येक प्रान्त में घटनाओं का विवरण लिखने के लिये कर्मचारी नियुक्त किये गये थे । कल्हण के विवरण से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय विलुप्त तथा विस्मृत इतिहास को पुनरुज्जीवित करने की कुछ आधुनिक विधियों से भी परिचित थे ।
वह लिखता हैं- “वही गुणवान् कवि प्रशंसा का अधिकारी है जो राग-द्वेष से मुक्त होकर एकमात्र तथ्यों के निरूपण में ही अपनी भाषा का प्रयोग करता है ।” वह हमें बताता है कि इतिहासकार का धर्म मात्र ज्ञात घटनाओं में नई घटनाओं को जोड़ना नहीं होता । अपितु सच्चा इतिहासकार प्राचीन अभिलेखों तथा सिक्कों का अध्ययन करके विलुप्त शासकों तथा उनकी विजयों की पुन: खोज करता है ।
कल्हण का यह कथन भारतीयों में इतिहास-बुद्धि का सबल प्रमाण प्रस्तुत करता है । इस प्रकार यदि हम सावधानीपूर्वक अपने विशाल साहित्य की छानबीन करें तो उसमें हमें अपने इतिहास के पुनर्निर्माणार्थ अनेक महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होगी ।
साहित्यिक ग्रन्थों के साथ-साथ भारत में समय-सभय पर विदेशों से आने वाले यात्रियों के भ्रमण-वृत्तान्त भी इतिहास-विषयक अनेक उपयोगी सामग्रियों प्रदान करते है । इधर पुरातत्ववेत्ताओं ने अतीत के खण्डहरों से अनेक ऐसी वस्तुएँ खोज निकाली हैं जो हमें प्राचीन इतिहास-सम्बन्धी बहुमूल्य प्रदान करती हैं ।
अत: हम सुविधा के लिये भारतीय इतिहास जानने के साधनों को तीन शीर्षकों में रख सकते हैं:
(1) साहित्यिक साक्ष्य ।
(2) विदेशी यात्रियों के विवरण ।
(3) पुरातत्व-सम्बन्धी साक्ष्य ।
यहाँ हम प्रत्येक का अलग-अलग विवेचन करेंगे:
(1) साहित्यिक साक्ष्य:
इस साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक सामग्रियों का अध्ययन किया जाता है ।
हमारा साहित्य दो प्रकार का हैं:
(a) धार्मिक साहित्य,
(b) लौकिक साहित्य ।
धार्मिक साहित्य में ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेतर ग्रन्थों की चर्चा की जा सकती है । ब्राह्मण ग्रन्थों में वेद, उपनिषद्, रामायण, महाभारत, पुराण तथा स्मृति ग्रन्थ आते है, जबकि बाह्मणेतर गुणों में बौद्ध तथा जैन साहित्यों से सम्बन्धित रचनाओं का उल्लेख किया जा सकता है । इसी प्रकार लौकिक साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथों, जीवनियां, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है ।
इनका अलग-अलग विवरण इस प्रकार है:
I. ब्राह्मण साहित्य :
वेद भारत के सर्वप्राचीन धर्म ग्रन्थ है जिनका संकलनकर्त्ता महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास को माना जाता है । भारतीय परम्परा वेदों को नित्य तथा अपौरुषेय मानती है। वैदिक युग की सांस्कृतिक दशा के ज्ञान का एकमात्र सोत होने के कारण वेदों का ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है । प्राचीन काल के अध्ययन के लिये रोचक समस्त सामग्री हमें प्रचुर रूप में वेदों से उपलब्ध हो जाती है ।
वेदों की संख्या चार हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद । इनमें ऋग्वेद न केवल भारतीय आयी की अपितु समस्त आर्य जाति की प्राचीनतम् रचना । इस प्रकार यह भारत तथा भारतेतर प्रदेशों के आर्यों के इतिहास, भाषा, धर्म एवं उनकी सामान्य संस्कृति पर प्रकाश डालता है । विद्वानों के अनुसार आयी ने इसकी रचना पंजाब में किया था जब वे अफगानिस्तान से लेकर गंगा-यमुना के प्रदेश तक ही फैले थे । इनमें दस मण्डल तथा 1028 सूक्त है ।
ऋग्वेद का अधिकांश भाग देव-स्तोत्रों में भरा हुआ है और इस प्रकार उसमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मिलती है । परन्तु इसके कुछ मन्त्र ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करते है । जैसे, एक स्थान पर “दस राजाओं के युद्ध” (दाशराज्ञ) का वर्णन आया है जो भरत कबीले के राजा सुदास के साथ हुआ था । यह ऋग्वैदिक काल की एकमात्र महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है ।
यह युद्ध आयी के दो प्रमुख जनों- पुरु तथा भरत के बीच हुआ था । भरत जन का नेता सुदास था जिसके पुरोहित वशिष्ठ थे । इनके विरुद्ध दस राजाओं का एक सध था जिसके पुरोहित विश्वामित्र थे । सुदास ने रावी नदी के तट पर दस राजाओं के इस संघ को परास्त किया और इस प्रकार वह ऋग्वैदिक भारत का चक्रवर्ती शासक बन बैठा ।
सामवेद तथा यजुर्वेद में किसी भी विशिष्ट ऐतिहासिक घटना का वर्णन नहीं मिलता । ‘साम’ का शाब्दिक अर्थ है गान । इसमें मुख्यत: यज्ञों के अवसर पर गाये जाने वाले मन्त्रों का संग्रह है । इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है । यजुर्वेद में यज्ञों के नियमों एवं विधि-विधानों का संकलन मिलता है ।
जबकि अन्य वेद पद्य में हैं, यह गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है । ऐतिहासिक दृष्टि से अथर्ववेद का महत्व रस बात में है कि रस में सामान्य मनुष्यों के विचारों तथा अंधविश्वासों का विवरण मिलता है । इनमें कुल 731 मन्त्र तथा लगभग 6000 पद्य हैं । इसके कुछ मन्त्र ऋग्वैदिक मन्त्रों से भी प्राचीनतर है ।
पृथिवीसूक्त इसका प्रतिनिधि सूक्त माना जाता है । इसमें मानव जीवन के सभी पक्षों-गृह निर्माण, कृषि की उन्नति, व्यापारिक मार्गों का गाहन, रोग निवारण, समन्वय, विवाह तथा प्रणय-गीतों, राजभक्ति, राजा का चुनाव, बहुत सी वनस्पतियों तथा औषधियों आदि का विवरण दिया गया है ।
कुछ मन्त्रों में जादू-टोने का भी वर्णन है जो इस बात का सूचक है कि इस समय तक आर्य- अनार्य संस्कृतियों का समन्दय हो रहा था तथा आयी ने अनायों के कई सामाजिक एवं धार्मिक रीति रिवाजों एवं विश्वासों को ग्रहण कर लिया था । अथर्ववेद में परीक्षित को कुरुओं का राजा कहा गया है तथा कुरु देश की समृद्धि का अच्छा चित्रण मिलता है । इन चार वेदों को “संहिता” कहा जाता है ।
ii. ब्राह्मण , आरण्यक तथा उपनिषद:
संहिता के पश्चात् ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों का स्थान है । इनसे उत्तर वैदिक कालीन समाज तथा संस्कृति के विषय में अच्छा ज्ञान प्राप्त होता है । ब्राह्मण ग्रन्थ वैदिक संहिताओं की व्याख्या करने के लिए गद्य में लिखे गये हैं । प्रत्येक संहिता के लिये अलग-अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं जैसे- ऋग्वेद के लिये ऐतरेय तथा कौषीतकी, यजुर्वेद के लिये तैत्तिरीय तथा शतपथ, सामवेद के लिये पंचविश, अथर्ववेद के लिये गोपथ आदि ।
इन ग्रन्थों से हमें परीक्षित के बाद और बिम्बिसार के पूर्व की घटनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है । ऐतरेय, शतपथ, तैत्तिरीय, पंचविश आदि प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में अनेक ऐतिहासिक तथ्य मिलते हैं । ऐतरेय में राज्याभिषेक के नियम तथा कुछ प्राचीन अभिषिक्त राजाओं के नाम दिये गये है ।
शतपथ में गन्धार, शल्य, कैकय, कुरु, पंचाल, कोसल, विदेह आदि के राजाओं का उल्लेख मिलता है । प्राचीन इतिहास के साधन के रूप में वैदिक साहित्य में ऋग्वेद के बाद शतपथ ब्राह्मण का स्थान है । कर्मकाण्डों के अतिरिक्त इसमें सामाजिक विषयों का भी वर्णन है । इसी प्रकार आरण्यक तथा उपनिषदों में भी कुछ ऐतिहासिक-तेल प्राप्त होते हैं, यद्यपि ये मुख्यत: दार्शनिक ग्रन्थ है जिनका ध्येय ज्ञान की खोज करना है । इनमें हम भारतीय चिंतन की चरम परिणति पाते हैं ।
iii. वेदांग तथा सूत्र:
वेदों को भली-भाँति समझने के लिये छ: वेदांगों की रचना की गयी- शिक्षा, ज्योतिष, कल्प, व्याकरण, निरुक्त तथा छन्द । ये वेदों के शुद्ध उच्चारण तथा यज्ञादि करने में सहायक थे । इसी प्रकार वैदिक साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये सूत्र साहित्य का प्रणयन किया गया ।
श्रौत, गृह्या तथा धर्मसूत्रों के अध्ययन से हम यज्ञीय विधि-विधानों, कर्मकाण्डों तथा राजनीति, विधि एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात करते है । ऋग्वेद से लेकर सूत्रों तक के सम्पूर्ण वैदिक वाङ्मय का काल ईसा पूर्व 2000 से लेकर 500 के लगभग तक: सामान्य तौर से स्वीकार किया जा सकता है ।
iv. महाकाव्य:
वैदिक साहित्य के बाद भारतीय साहित्य में रामायण और महाभारत नामक दो महाकाव्यों का समय आता है । मूलत: इन ग्रन्थों की रचना ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में हुई थी तथा इनका वर्तमान स्वरूप क्रमश: दूसरी एवं चौथी शताब्दी ईस्वी के लगभग निर्मित हुआ था । भारत के सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य में इन दोनों ही महाकाव्यों का अत्यन्त आदराणीय स्थान है । इनके अध्ययन से हमें प्राचीन हिंदू संस्कृति के विविध पक्षों का सुन्दर ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
इन महाकाव्यों द्वारा प्रतिपादित आदर्श तथा मूल्य सार्वभौम मान्यता रखते है । रामायण हमारा आदि-काव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी । इससे हमें हिन्दुओं तथा यवनों और शकों के संघर्ष का विवरण प्राप्त होता है । इसमें यवन-देश तथा शकों का नगर, कुरु तथा मद्र देश और हिमालय के बीच स्थित बताया गया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों यूनानी तथा सीथियन लोग पंजाब के कुछ भागों में बसे हुये थे ।
महाभारत की रचना वेदव्यास ने की थी । इसमें भी शक, यवन, पारसीक, हूण आदि जातियों का उल्लेख मिलता है । इससे प्राचीन भारतवर्ष की सामाजिक, धार्मिक तथा राजनीतिक दशा का परिचय मिलता है । राजनीति तथा शासन के विषय में तो यह ग्रन्थ बहुमूल्य सामग्रियों का भण्डार ही है । महाभारत में यह कहा गया है कि ‘धर्म’, अर्थ, काम तथा मोक्ष के विषय में जो कुछ भी इसमें है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है ।
परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से इन अन्यों का विशेष महत्व नहीं है क्योंकि इनमें वर्णित कथाओं में कल्पना का मिश्रण अधिक है । महाकाव्यों में जिस समाज और संस्कृति का चित्रण है उसका उपयोग उत्तरवैदिक काल के अध्ययन के लिये किया जा सकता है ।
भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणों में मिलता है । पुराणों के रचयिता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं । इनकी संख्या 18 है । अधिकांश पुराणों की रचना तीसरी चौथी शताब्दी ईस्वी में की गयी थी । सर्वप्रथम पार्जिटर (Pargiter) नामक विद्वान् ने उनके ऐतिहासिक महत्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किया गया था ।
अमरकोश में पुराणों के पाँच विषय बताये गये हैं:
(1) सर्ग अर्थात् जगत की सृष्टि,
(2) प्रतिसर्ग अर्थात् प्रलय के बाद जगत् की पुन सृष्टि,
(3) वंश अर्थात् ऋषियों तथा देवताओं की वंशावली,
(4) मन्वन्तर अर्थात् महायुग और
(5) वंशानुचरित अर्थात् प्राचीन राजकुलों का इतिहास ।
इनमें ऐतिहासिक दृष्टि से “वंशानुचरित” का विशेष महत्व है। अठारह पुराणों से केवल पाँच में (मत्स्य, वायु, विष्णु, ब्रह्माण्ड, भागवत) ही राजाओं की वंशावली पायी जाती है । इनमें मत्स्यपुराण सबसे अधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक है । पुराणों की भविष्य शैली में कलियुग के राजाओं की तालिकायें दी गयी है ।
इनके साथ शैशुनाग, नन्द, मौर्य, शुड्ग, कण्व, आन्ध्र तथा गुप्त वंशों की वंशावलियां भी मिलती है । मौर्यवंश के लिये विष्णु पुराण तथा आन्ध्र (सातवाहन) वंश के लिये मत्स्य पुराण महत्व के है । इसी प्रकार वायु पुराण में गुप्तवंश की साम्राज्य सीमा का वर्णन तथा गुप्तों की शासन-पद्धति का भी कुछ विवरण प्राप्त होता है ।
सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अग्निपुराण का काफी महत्व है जिसमें राजतन्त्र के साथ-साथ कृषि सम्बन्धी विवरण भी दिया गया है । इस प्रकार पुराण प्राचीनकाल से लेकर गुप्तकाल के इतिहास से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का परिचय कराते हैं । छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के पहले के प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण के लिये तो पुराण ही एकमात्र स्रोत है ।
vi. धर्मशास्त्र:
धर्मसूत्र, स्मृति, भाष्य, निबन्ध आदि को सम्मिलित रूप से धर्मशास्त्र कहा जाता है । धर्मसूत्रों का काल सामान्यत: ई॰ पू॰ 500-200 के लगभग निर्धारित किया जाता है । आपस्तम्भ, बौद्धायन तथा गौतम के धर्मसूत्र सबसे प्राचीन है । धर्मसूत्रों में ही सर्वप्रथम हम वर्णव्यवस्था का स्पष्ट वर्णन प्राप्त करते है तथा चार वर्णों के अलग-अलग कर्त्तव्यों का भी निर्देश मिलता है ।
कालान्तर में धर्मसूत्रों का स्थान स्मृतियों ने ग्रहण किया । जहाँ धर्मसूत्र गद्य में है, वहीं स्मृति ग्रंथ पद्य में लिखे गये है । स्मृतियों में मनुस्मृति सबसे प्राचीन तथा प्रामाणिक मानी जाती है । बूलर के अनुसार इसकी रचना ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से लेकर ईसा की दूसरी शताब्दी के मध्य हुई थी ।
अन्य स्मृतियों में याज्ञवल्क्य, नारद, वृहस्पति, कात्यायन, देवल आदि की स्मृतियाँ उल्लेखनीय हैं । मनुस्मृति को शुंग काल का मानक ग्रन्थ माना जाता है । इसके अध्ययन से शुंगकालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का बोध होता है । नारद स्मृति गुप्त-युग के विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें प्रदान करती है । कालान्तर में इन पर अनेक विद्वानों द्वारा टीकायें लिखी गयीं ।
मनुस्मृति के प्रमुख टीकाकार भारुचि, मेघातिधि, गोविन्दराज तथा कुल्लूक भट्ट है । विश्वरूप, विज्ञानेश्वर तथा अपरार्क, याज्ञवल्क्य स्मृति के प्रमुख टीकाकार है । इन टीकाओं से भी हम हिंदू-समाज के विविध पक्षों के विषय में अच्छी जानकारी प्राप्त करते हैं ।
II. ब्राह्मणेतर साहित्य:
i. बौद्ध ग्रन्थों:
बौद्ध ग्रन्थों में ‘त्रिपिटक’ जबसे महत्वपूर्ण है । बुद्ध की मृत्यु के बाद उनकी शिक्षाओं को संकलित कर तीन भागों में बांटा गया । इन्हीं को त्रिपिटक कहते हैं । ये हैं- विनयपिटक (संघ सम्बन्धी नियम तथा आचार की शिक्षायें), सुत्तपिटक (धार्मिक सिद्धान्त अथवा धर्मोंप्रदेश) तथा अभिधम्मपिटक (दार्शनिक सिद्धान्त) । इसके अतिरिक्त निकाय तथा जातक आदि से भी हमें अनेकानेक ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है ।
पाली भाषा में लिखे गये बौद्ध-अन्यों को प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व का माना जाता है । अभिधम्मपिटक में सर्वप्रथम संस्कृत भाषा का प्रयोग मिलता है । त्रिपिटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि ये बौद्ध संघों के संगठन का पूर्ण विवरण प्रस्तुत करते हैं । निकायों में बौद्ध धर्म के सिद्धान्त तथा कहानियों का संग्रह हैं । जातकों में बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानी है । कुछ जातक ग्रन्थों से बुद्ध के समय की राजनीतिक अवस्था का परिचय भी मिलता है ।
इसके साथ ही साथ ये समाज और सभ्यता के विभिन्न पहलुओं के विषय में महत्वपूर्ण सामग्री प्रदान करते हैं । दीपवंश तथा महावंश नामक दो पाली गुणों से मौर्यकालीन इतिहास के विषय में सूचना मिलती है । पाली भाषा का एक अन्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ नागसेन द्वारा रचित “मिलिन्दपण्हो” (मिलिन्द-प्रश्न) है जिससे हिन्द-यवन शासक मेनाण्डर के विषय ये सूचनायें मिलती है ।
इनके अतिरिक्त संस्कृत भाषा में लिखे गये अन्य कई बौद्ध ग्रन्थ भी हैं जो बौद्ध धर्म के दोनों सम्प्रदायों से सम्बन्धित है । हीनयान का प्रमुख ग्रन्थ ‘कथावस्तु’ है जिसमें महात्मा बुद्ध का जीवन चरित अनेक कथानकों के साथ वर्णित है । महायान सम्प्रदाय के ग्रन्थ ‘ललितविस्तर’, दिव्यावदान आदि है । ललितविस्तर में बुद्ध को देवता मानकर उनके जीवन तथा कार्यों का चमत्कारिक वर्णन प्रस्तुत किया गया है ।
दिव्यावदान से अशोक के उत्तराधिकारियों से लेकर पुष्यमित्र शुंग तक के शासकों के विषय में सूचना मिलती है । संस्कृत बौद्ध लेखकों में अश्वघोष का नाम अत्यन्त ऊँचा है । इनकी रचनाओं का उल्लेख यथास्थान किया गया है । जहाँ ब्राह्मण ग्रन्थ प्रकाश नहीं डालते वहाँ बौद्ध ग्रन्थों से हमें तथ्य का ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
ii. जैन-ग्रन्थ:
जैन साहित्य को ‘आगम’ (सिद्धान्त) कहा जाता है । जैन साहित्य का दृष्टिकोण भी बौद्ध साहित्य के समान ही धर्मपरक है । जैन ग्रन्थों में परिशिष्टपर्वन, भद्रबाहुचरित, आवश्यकसूत्र, आचारांगसूत्र, भगवतीसूत्र, कालिकापुराण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय है । इनसे अनेक ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है ।
जैन धर्म का प्रारम्भिक इतिहास ”कल्पसूत्र” (लगभग चौथी शती ई॰ पू॰) से ज्ञात होता है जिसकी रचना भद्रबाहु ने की थी । परिशिष्टपर्वन् तथा भद्रबाहुचरित से चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन की प्रारम्भिक तथा उत्तरकालीन घटनाओं की सूचना मिलती है । भगवतीसूत्र में महावीर के जीवन, कृत्यों तथा अन्य समकालिकों के साथ उनके सम्बन्धों का बड़ा ही रोचक विवरण मिलता है ।
आचारांगसूत्र जैन भिक्षुओं के आचार-नियमों का वर्णन करता है । जैन साहित्य में पुराणों का भी महत्वपूर्ण स्थान है जिन्हें ‘चरित’ भी कहा जाता है । ये प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश, तीनों भाषाओं में लिखे गये है । इनमें पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, इत्यादि उल्लेखनीय है ।
जैन पुराणों का समय छठी शताब्दी से सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी तक निर्धारित किया गया । यद्यपि इनमें मुख्यत: कथायें दी गयी है तथापि इनके अध्ययन से विभिन्न काली की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दशा का थोड़ा बहुत ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
III. लौकिक साहित्य :
लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक ग्रन्थों तथा जीवनियों का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है जिनसे भारतीय इतिहास जानने में काफी मदद मिलती है । ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वप्रथम उल्लेख ”अर्थशास्त्र” का किया जा सकता है जिसकी रचना चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रधानमन्त्री सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ कौटिल्य (चाणक्य) ने की थी । मौर्यकालीन इतिहास एवं राजनीति के ज्ञान के लिये यह ग्रन्थ एक प्रमुख स्रोत है । इससे चन्द्रगुप्त मौर्य की शासन-व्यवस्था पर प्रचुर प्रकाश पड़ता है ।
कौटिल्यीय अर्थशास्त्र के अनेक सिद्धान्तों को सातवीं-आठवीं शताब्दी ईस्वी में कामन्दक ने अपने “नीतिसार” में संकलित किया । इस संग्रह में दसवीं शताब्दी ईस्वी के राजत्व सिद्धान्त तथा राजा के कर्तव्यों पर प्रकाश पड़ता है । ऐतिहासिक रचनाओं में सर्वाधिक महत्व कश्मीरी कवि कहर, हारा विरचित “राजतरंगिणी” को है । यह संस्कृत साहित्य में ऐतिहासिक घटनाओं के क्रमवद्ध इतिहास लिखने का प्रथम प्रयास है ।
इसमें आदिकाल से लेकर 1151 ई॰ के आरम्भ तक के कश्मीर के प्रत्येक शासक के काल की घटनाओं का क्रमानुसार विवरण दिया गया है । कश्मीर की ही भांति गुजरात से भी अनेक ऐतिहासिक ग्रन्थ प्राप्त होते है जिनमें सोमेश्वर कृत रसमाला तथा कीर्तिकौमुद्री, मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि, राजशेखर कृत प्रबन्धकोश आदि उल्लेखनीय है । इनसे हमें गुजरात के चौलुक्य वंश का इतिहास तथा उसके समय की संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।
इसी प्रकार सिन्ध तथा नेपाल से भी कई इतिवृत्तियां (Chronicles) मिलती हैं जिनसे वहाँ का इतिहास ज्ञात होता है । सिन्ध की इतिवृत्तियों के आधार पर ही “चचनामा” नामक ग्रन्थ की रचना की गयी जिसमें अरबों की सिन्ध विजय का वृत्तान्त सुरक्षित है ।
मूलत: यह अरबी भाषा में लिखा गया तथा कालान्तर में इसका अनुवाद खुफी के द्वारा फारसी भाषा में किया गया । अरब आक्रमण के समय सिन्ध की दशा का अध्ययन करने के लिये यह सर्वप्रमुख ग्राम्य है । नेपाल की वशावलियों में वहाँ के शासकों का नामोल्लेख प्राप्त होता है, किन्तु उनमें से अधिकांश अनैतिहासिक हैं ।
अर्द्ध-ऐतिहासिक रचनाओं में पाणिनि की अष्टाध्यायी, कात्यायन का वार्त्तिक, गार्गीसंहिता, पतंजलि का महाभाष्य, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस तथा कालिदासकृत मालविकाग्निमित्र आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पाणिनि तथा कात्यायन के व्याकरण-ग्रन्थों से मौर्यो के पहले के इतिहास तथा मौर्ययुगीन राजनीतिक अवस्था पर प्रकाश पड़ता है । पाणिनि ने सूत्रों को समझाने के लिए जो उदाहरण दिये है उनका उपयोग सामाजिक-आर्थिक दशा के ज्ञान के लिये भी किया जा सकता है ।
इससे उत्तर भारत के भूगोल की भी जानकारी होती है । गार्गीसंहिता, यद्यपि एक ज्योतिष-अन्य है तथापि इससे कुछ ऐतिहासिक घटनाओं की सूचना मिलती है । इसमें भारत पर होने वाले यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है जिससे हमें पता चलता है कि यवनों ने साकेत, पंचाल, मधुरा तथा कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण किया था । पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे । उनके महाभाष्य से शुंगों के इतिहास पर प्रकाश पड़ता है ।
मुद्राराक्षस से चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में सूचना मिलती है । कालिदास कृत ‘मालविकाग्निमित्र’ नाटक शुंगकालीन राजनीतिक परिस्थितियों का विवरण प्रस्तुत करता है । ऐतिहासिक जीवनियों में अश्वधोषकृत बुद्धचरित, बाणभट्ट का हर्षचरित, वाक्पति का गौड़वहो, विल्हण का विक्रमाड्कदेवचरित, पद्यगुप्त का नवसाहसाड्कचरित, सन्ध्याकर नन्दी कृत “रामचरित” हेमचन्द्र कृत ”कुमारपालचरित” (द्वयाश्रयकाव्य) जयानक कृत “पृथ्वीराजविजय” आदि का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है ।
“बुद्धचरित” में गौतम बुद्ध के चरित्र का विस्तृत वर्णन हुआ है । “हर्षचरित” से सम्राट हर्षवर्धन के जीवन तथा तत्कालीन समाज एवं धर्म-विषयक अनेक महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती है । गौडवहो में कन्नोजनरेश यशोवर्मन् के गौड़नरेश के ऊपर किये गये आक्रमण एवं उसके बध का वर्णन है । विक्रमाड्कदेवचरित में कल्याणी के चालुक्यवंशी नरेश विक्रमादित्य षष्ठ का चरित्र वर्णित है । नवसाहसाँकचरित में धारानरेश मुञ्ज तथा उसके भाई सिन्धुराज के जीवन की घटनाओं का विवरण है ।
रामचरित से बंगाल के पालवंश का शासन, धर्म एवं तत्कालीन समाज का ज्ञान होता है । आनन्दभट्ट कृत बल्लालचरित से सेन वंश के इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है । कुमारपालचरित में चौलुक्य शासकों-जयसिंह सिद्धराज तथा कुमारपाल का जीवन चरित तथा उनके समय की घटनाओं का वर्णन है ।
पृथ्वीराजविजय से चाहमान राजवंश के इतिहास का ज्ञान होता है । इसके अतिरिक्त और भी जीवनियां है जिनसे हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री मिल जाती है । राजशेखरकृत प्रबन्धकोश, बालरामायण तथा काव्यमीमांसा- इनसे राजपूतयुगीन समाज तथा धर्म पर प्रकाश पड़ता है ।
उत्तर भारत के समान दक्षिण भारत से भी अनेक तमिल ग्रन्थ प्राप्त होते है जिनसे वहाँ शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों के काल का इतिहास एवं संस्कृति का ज्ञान होता है । तमिल देश का प्रारम्भिक इतिहास संगम-साहित्य से ज्ञात होता है ।
नन्दिक्कलम्बकम्, कलिंगत्तुपर्णि, चोलचरित आदि के अध्ययन से दक्षिण में शासन करने वाले पल्लव तथा चोल वंशों के इतिहास एवं उनकी संस्कृति का ज्ञान होता है । कलिंगत्तुपर्णि में चोल सम्राट कुलीतुंग प्रथम की कलिंग विजय का विवरण सुरक्षित है ।
तमिल के अतिरिक्त कन्नड़ भाषा में लिखा गया साहित्य भी हमें उपलब्ध होता है । इसमें महाकवि पम्प द्वारा रचित ‘विक्रमार्जुन विजय’ (भारत) तथा रन्न कृत ‘गदायुद्ध’ विशेष महत्व के हैं । इनसे चालुक्य तथा राष्ट्रकूट वंशों के इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है ।
(2) विदेशी यात्रियों के विवरण :
भारतीय साहित्य के अतिरिक्त समय-समय पर भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास जानने में पर्याप्त मदद मिलती है । इनमें से कुछ ने तो भारत में कुछ समय तक निवास किया और अपने स्वयं के अनुभव से लिखा है तथा कुछ यात्रियों ने जनश्रुतियों एवं भारतीय ग्रन्थों को अपने विवरण का आधार बनाया है । इन लेखकों में यूनानी, चीनी तथा अरबी-फारसी लेखक विशेष रूप में उल्लेखनीय हैं ।
I. यूनानी-रोमन (क्लासिकल) लेखक:
यूनान के प्राचीनतम लेखकों में टेसियस तधा हेरोडोटस के नाम प्रसिद्ध है । टेसियस ईरान का राजवैद्य था तथा उसने ईरानी अधिकारियों द्वारा ही भारत के विषय में जानकारी प्राप्त की थी । परन्तु उसका विवरण आश्चर्यजनक कहानियों से परिपूर्ण होने के कारण अविश्वसनीय हो गया है । हेरोडोटस को ‘इतिहास का पिता’ कहा जाता है ।
उसने अपनी पुस्तक ‘हिस्टोरिका (Historica) में पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व के भारत-फारस के सम्बन्ध का वर्णन किया है । उसका विवरण अधिकांशत अनुभूतियों तथा अफवाहों पर आधारित है । सिकन्दर के साथ आने वाले लेखकों में नियार्कस, आनेसिक्रिटस तथा आरिस्टोबुलस के विवरण अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक एवं विश्वसनीय हैं । चूँकि रन लेखकों का उद्देश्य अपनी रचनाओं द्वारा अपने देशवासियों को भारतीयों के विषय में बताना था, अत: इनका वृत्तान्त यथार्थ है ।
सिकन्दर के पश्चात् के लेखकों में तीन राजदूतों-मेगस्थनीज डाइमेकस तथा डायीनिसियस के नाम उल्लेखनीय है जो यूनानी शासकों द्वारा पाटलिपुत्र के मौर्य दरवार में भेजे गये थे । इनमें भी मेगस्थनीज सर्वाधिक प्रसिद्ध है । वह सेल्युकस ‘निकेटर’ का राजदूत था तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था । उसने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक में मौर्ययुगीन समाज एवं संस्कृति के विषय में लिखा है ।
यद्यपि यह पुस्तक अपने मूल रूप में उपलब्ध नहीं है तथापि इसके कुछ अंश उद्धरण के रूप में एरियन, स्ट्रेबी, जस्टिन आदि लेखकों की कृतियों में प्राप्त होते है । ‘इण्डिका’ वस्तुतः यूनानियों द्वारा भारत के सम्बन्ध दे शप्त शनराशि में सबसे अमूल्य रत्न है ।
डाइमेकस (सीरियन नरेश अन्तियोकस का राजदूत) बिन्दुसार के दरबार में तथा डायोनिसियल (मिस्र नरेश टालमी फिलेडेल्फस का राजदूत) अशोक के दरबार दे आया था । अन्य अन्यों में ‘पेरीप्लस ऑफ द इरिथ्रयन-सी’, टालमी का भूगोल, प्लिनी का ‘नेचुरल हिन्दी’ आदि का भी उल्लेख किया जा सकता है । पेरीप्लस का लेखक 80 ई. के लगभग हिन्द महासागर की यात्रा पर आया था ।
उसने उसके बन्दरगाहों तथा व्यापारिक वस्तुओं का विवरण दिया है । प्राचीन भारत के समुद्री व्यापार के ज्ञान के लिये उसका विवरण बड़ा उपयोगी है । दूसरी शताब्दी ईस्वी में टालमी ने भारत का भूगोल लिखा था । प्लिनी का ग्रन्थ प्रथम शताब्दी ईस्वी का है । इससे भारतीय पशुओं, पेड़-पौधों, खनिज पदार्थों आदि का ज्ञान प्राप्त होता है ।
II. चीनी-लेखक:
प्राचीन भारतीय इतिहास के पुनर्निर्माण में चीनी यात्रियों के विवरण भी विशेष उपयोगी रहे हैं। ये चीनी यात्री बौद्ध मतानुयायी थे तथा भारत में बौद्ध तीर्थस्थानों की यात्रा तथा बौद्ध धर्म के विषय में जानकारी प्राप्त करने के लिये आये थे। वे भारत का उल्लेख ‘यिन्-तु’ (Yin-tu) नाम से करते हैं ।
इनमें चार के नाम विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं- फाहियान, सुंगपुन, हुएनसांग तथा इत्सिग । फाहियान, गुप्तनरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (375-415 ई.) के दरबार में आया था । उसने अपने विवरण में मध्यदेश के समाज एवं संस्कृति का वर्णन किया है । वह मध्यदेश की जनता को चुखी एवं समृद्ध बताता है ।
सुंगयुन 518 ई. में भारत में आया और उसने अपने तीन वर्ष की यात्रा में बौद्ध ग्रन्धों की प्रतियाँ एकत्रित कीं । चीनी यात्रियों में सवाधिक महत्व हुएनसाग अथवा युवानच्चाग का ही है जो महाराज हर्षवर्द्धन के शासन काल में (629 ई. का लगभग) यहाँ आया था । उसने 16 वर्षों तक यहाँ निवास कर विभिन्न स्थानों की यात्रा की तथा नालन्दा विश्वविद्यालय में 6 वर्षों तक रहकर शिक्षा प्राप्त की ।
उसका भमण वृत्तान्त ‘सि-यू-की’ नाम से प्रसिद्ध है जिसमें 138 देशों का विवरण मिलता है । इससे हर्षकालीन भारत के समाज, धर्म तथा राजनीति पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है । उसके मित्र ढीली ने ‘हुएनसांग की जीवनी’ लिखी है जो हर्षकालीन भारत की दशा के ज्ञान के लिये एक प्रमुख स्रोत है ।
भारतीय संस्कृति के इतिहास में हुएनसांग ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इत्सिग सातवीं शताब्दी के अन्त में भारत आया था । उसने अपने विवरण में नालन्दा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय तथा अपने समय के भारत की दशा का वर्णन किया है । परन्तु वे हुएनसांग के समान उपयोगी नहीं हैं ।
अन्य चीनी लेखकों में मात्वान लिन् तथा चाऊ-जू-कूआ का उल्लेख किया जा सकता है । मा त्वान लिन् के विवरण से हर्ष के पूर्वी अभियान के विषय में कुछ सूचना मिलती है । चाऊ-जू-कृआ चोल इतिहास के विषय में कुछ तध्य प्रस्तुत करता है ।
III. अरबी लेखक:
अरब व्यापारियों तथा लेखकों के विवरण से हमें पूर्वमध्यकालीन भारत के समाज एवं संस्कृति के विषय में जानकारी होती है । ऐसे लेखकों में अल्बरूनी का नाम सर्वप्रसिद्ध है । उसका जन्म 973 ई॰ में ख्वारिज्म (खीवा) में हुआ धा । उसका पूरा नाम अबूरेहान मुहम्मद इब्न अहमद अल्बरूनी था । प्रारम्भ में उसने साहित्य तथा विज्ञान का अध्ययन किया एवं इन विद्याओं में निपुणता हासिल की ।
उसकी विद्वता से प्रभावित होकर ख्वारिज्म के ममूनी शासक ने उसे अपना मन्त्री नियुक्त कर दिया । 1017 ई॰ में गजनी के सुल्तान महमूद ने ख्वारिज्म पर आक्रमण किया तथा उसे जीत लिया । अनेकों लोग बन्दी बनाये गये जिनमें अल्बरूनी भी एक था । महमूद उसकी योग्यता से अत्यन्त प्रभावित हुआ तथा उसने उसे राजज्योतिषी के पद पर नियुक्त कर दिया ।
भारतीय तथा यूनानी दोनों ही पद्धतियों से उसने ज्योतिष का अध्ययन किया तथा निपुणता प्राप्त की । गणित, विज्ञान एवं ज्योतिष के साथ ही साथ अल्बरूनी अरबी, फारसी एवं संस्कृत भाषाओं का भी अच्छा ज्ञाता था । वह महमूद गजनवी के साथ भारत आया था ।
किन्तु उसका दृष्टिकोण महमूद से पूर्णतया भिन्न था और वह भारतीयों का निन्दक न होकर उनकी बौद्धिक सफलताओं का महान् प्रशंसक था । भारतीय संस्कृति के अध्ययन में उसकी गहरी दिलचस्पी थी तथा गौता से वह विशेष रूप से प्रभावित हुआ । भारतीयों के दर्शन, ज्योतिष एवं विज्ञान सम्बन्धी ज्ञान की वह प्रशंसा करता है ।
अल्बरूनी सत्य का हिमायती तथा अपने विचारों का पक्का था । उसने भारतीयों से जो कुछ सुना उसी के आधार पर उनकी सभ्यता का विवरण प्रस्तुत कर दिया । अपनी पुस्तक “तहकीक-ए-हिन्द” (भारत की खोज) में उसने यहां के निवासियों की दशा का वर्णन किया है । इससे राजपूतकालीन समाज, धर्म, रीति-रिवाज, राजनीति आदि पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।
ज्ञात होता है कि उसके समय में ब्राह्मण धर्म का बोल-बाला था तथा बौद्ध धर्म का अस्तित्व समाप्त हो गया था । अपने विवरण में वह बौद्ध धर्म का बहुत कम उल्लेख करता है । हिंदू समाज में प्रचलित वर्णव्यवस्था का उल्लेख भी वह करता है तथा बताता है कि ब्राह्मणों को समाज में सबसे अधिक प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त था । पेशावर स्थित कनिष्क विहार का भी वह विवरण देता है ।
अल्बरूनी का विवरण चीनी यात्रियों के विवरण की भाँति उपयोगी नहीं है क्योंकि उसे भारत में भ्रमण करने का बहुत कम अवसर प्राप्त हुआ । उसके समय में बनारस तथा कश्मीर शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे किन्तु वह इन स्थानों में भी नहीं जा सका ।
अल्बरूनी के अतिरिक्त अल-बिलादुरी, सुलेमान, अल मसऊदी, हसन निजाम, फरिश्ता, निजामुद्दीन आदि मुसलमान लेखक भी हैं जिनकी कृतियों से भारतीय इतिहास-विषयक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है । इब्नखुर्दद्ब (नवीं शती) के ग्रन्थ ‘किलबुल-मसालिक वल ममालिक’ में भारतीय समाज तथा व्यापारिक मार्गों का विवरण दिया गया है । अबूजैद ने भारत में सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का वर्णन किया है । अल मसूदी के ग्रन्थ ‘मुरुजुज जहब’ में भारतीय समाज का चित्रण है ।
मीर मुहम्मद मसूम के तारीख-ए-सिन्द अथवा तारीक-ए-मसूमी से सिन्ध देश का इतिहास (अरब आक्रमण के समय का) ज्ञात होता है । यह अरब आक्रमण के कारणों तथा मुहम्मद बिन कासिम की सफलताओं पर भी प्रकाश डालता है । शेख अब्दुल हसन कृत ‘कमिल-उत-तवारीख’ से मुहम्मद गोरी के भारतीय विजय का वृतान्त ज्ञात होता है । मिनहासुद्दीन के तबकात-ए-नासिरी में भी मुहम्मद गोरी की हिन्दुस्तान विजय का प्रामाणिक विवरण सुरक्षित है ।
उपर्युक्त लेखकों के अतिरिक्त तिब्बती बौद्ध लेखक तारानाथ (12वीं शतीं) के ग्रन्थों -कंग्युर तथा तंग्युर-से भी भारतीय इतिहास की कुछ बातें ज्ञात होती है । किन्तु उसके विवरण ऐतिहासिक नहीं लगते । वेनिस का प्रसिद्ध यात्री मार्कोपोलो तेरहवीं शती के अन्त में पाण्ड्य देश की यात्रा पर आया था । उसका वृत्तान्त पाण्ड्य इतिहास के अध्ययन के लिये उपयोगी है ।
(3) पुरातत्व सम्बन्धी साक्ष्य :
पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । प्राचीन इतिहास के ज्ञान के लिये पुरातात्विक प्रमाणों से बहुत अधिक सहायता मिलती है । ये साधन अत्यन्त प्रामाणिक है तथा इनसे भारतीय इतिहास के अनेक अन्ध-युगों (Dark-Ages) पर प्रकाश पड़ता है । जहाँ साहित्यिक साक्ष्य मौन है वही हमारी सहायता पुरातात्विक साक्ष्य करते है ।
पुरातत्व के अन्तर्गत तीन प्रकार के साक्ष्य आते हैं:
(II) मुद्रा
(III) स्मारक
इनका विस्तृत विवरण इस प्रकार है:
(I) अभिलेख:
प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में अभिलेखों से बड़ी मदद मिली है । अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व साहित्यिक साक्ष्यों से अधिक है । ये अभिलेख पाषाण- शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों, मुद्राओं एवं प्रतिमाओं आदि पर खुदे हुये मिले है । सबसे प्राचीन अभिलेखों में मध्य एशिया के बोघजकोई से प्राप्त अभिलेख है ।
यह हित्ती नरेश सप्पिलुल्युमा तथा मितन्नी नरेश मतिवजा (Mativaja) के बीच सन्धि का उल्लेख करता है जिसके साक्षी के रूप में वैदिक मित्र, वरुण, इन्द्र और नासत्य (अश्विनी) के नाम मिलते है । यह लगभग 1400 ई॰ पू॰ के है तथा इनसे ऋग्वेद की तिथि ज्ञात करने में सहायता मिलती है ।
पारसीक नरेशों के अभिलेख हमें पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी साम्राज्य के विस्तार की सूचना देते हैं । परन्तु अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें अशोक के शासन काल से ही मिलने लगे हैं । अशोक के अनेक शिलालेख एवं स्तम्भ-लेख देश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त होते है । अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा, उसके धर्म तथा शासन नीति पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है ।
देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर जैसे एक चोटी के विद्वान् ने केवल अभिलेखों के आधार पर ही अशोक का इतिहास लिखने का सफल प्रयास किया है । अशोक के बाद भी अभिलेखों की परम्परा कायम रही । अब हमें अनेक प्रशस्तियाँ मिलने लगती हैं जिनमें दरबारी कवियों अथवा लेखकों द्वारा अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के शब्द मिलते है ।
यद्यपि ये प्रशस्तियाँ अतिरंजित हैं तथापि ऐसे इनसे सम्बन्धित शासकों के विषय में हमें अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं । ऐसे लेखों में खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, शकक्षत्रप रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, सातवाहन नरेश पुलुमावी का नासिक गुहालेख, गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भ-लेख, मालवनरेश यशोधर्मन् का मन्दसोर अभिलेख, चालुक्यनरेश पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल का अभिलेख, प्रतिहारनरेश भोज का ग्वालियर अभिलेख आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध है ।
इनमें से अधिकांश लेखों से तत्सबंधी राजाओं के सैनिक अभियानों की सूचना मिलती है । जैसे, समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भ-लेख में उसकी विजयी का विशद विवरण है । ऐहोल का लेख हर्ष-पुलकेशिन् युद्ध का विवरण देता है । ग्वालियर लेख से गुर्जर-प्रतिहार शासकों के विषय में विस्तृत सूचनायें प्राप्त होती है ।
गैर-सरकारी लेखों में यवन राजदूत हेलियाडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुड़-स्तम्भ लेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिससे द्वितीय शताब्दी ई. पू. में मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण मिलता है । कुछ अभिलेख मूर्तियों, ताम्रपत्रों आदि के ऊपर अंकित मिलते है । इनसे भी इतिहास विषयक अनेक उपयोगी सामग्रियाँ प्राप्त हो जाती है ।
मध्यप्रदेश के एरण से प्राप्त वाराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण का लेख अंकित है जिससे उसके विषय में सूचनायें मिलती है । पूर्व मध्यकाल में शासन करने वाले राजपूतों के विभिन्न राजवंशों में से प्रत्येक के कई लेख मिलते है जिनसे सबंधित राजाओं की उपलब्धियों के साथ-साथ समाज एवं संस्कृति की भी जानकारी होती है ।
इनमें गुर्जर प्रतिहार वंश की जोधपुर तथा ग्वालियर प्रशस्ति, पालवंश का खालीमपुर, नालन्दा तथा भागलपुर के लेख, सेनवशी विजय सेन की देवपाड़ा प्रशस्ति, गहड़वाल शासक गोविन्दचन्द्र का कमौली लेख, परमार भोजदेव का वंसवर लेख तथा जयसिह की उदयपुर प्रशस्ति, चन्देल धंग का खजुराहो लेख, चेदि कर्ण का बनारस तथा यश कर्ण का जबलपुर ताम्रपत्र लेख, चाहमान विग्रहराज का दिल्ली शिवालिक स्तम्भ लेख आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं ।
राजपूत शासकों के अधीन सामन्तों के भी बहुसख्यक लेख मिलते है । पूर्व मध्य काल के बहुसंख्यक भूमि अनुदान-पत्र मिलतें है जिनसे प्रशासन के सामन्ती स्वरूप की सूचना मिलती है । दक्षिण भारत में शासन करने वाले पल्लव, चोल आदि प्रसिद्ध राजवंशों के भी अनेक लेख प्राप्त हुए है जिनसे उनके इतिहास की विस्तृत जानकारी मिलती है।
(II) मुद्रायें अथवा सिक्के:
अभीलेखों के अतिरिक्त प्राचीन राजाओं द्वारा डलवाये गये सिक्कों से भी प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होती है । यद्यपि भारत में सिक्कों की प्राचीनता आठवीं शती ईसा पूर्व तक जाती है तथापि ईसा पूर्व छठीं शताब्दी से ही हमें नियमित सिक्के मिलने लगते है । प्राचीनतम सिक्कों को ‘आहत सिक्के’ (Punch-Marked Coins) कहा जाता है ।
इन्हीं को साहित्य में ‘कार्षापण’, ‘पुराण’, ‘धरण’, शतमान’ आदि भी कहा गया है । ये अधिकांशतः चाँदी के टुकड़े है जिनपर विविध आकृतियाँ चिह्नित की गयी हैं। इन पर लेख नहीं मिलते । सर्वप्रथम सिक्कों पर लेख लिखवाने का कार्य यवन शासकों ने किया । उन्होंने उत्तर में सोने के सिक्के चलवाये । साधारणतया 206 ई॰ पू॰ से लेकर 300 ई॰ तक के भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्य रूप से मुद्राओं की सहायता से ही होता है ।
कुछ मुद्राओं पर तिथियाँ भी खुदी हुई हैं जो कालक्रम के निर्धारण में बड़ी सहायक हुई हैं । मुद्राओं से तत्कालीन आर्थिक दशा तथा सम्बन्धित राजाओं की साम्राज्य सीमा का भी ज्ञान हो जाता है । किसी काल में सिक्कों की बहुलता को देखकर हम यह निष्कर्ष निकालते है कि उसमें व्यापार-वाणिज्य अत्यन्त विकसित दशा में था ।
सिक्कों की कमी को व्यापार-वाणिज्य की अवनति का सूचक माना जा सकता है । पूर्व मध्य काल के प्रथम चरण में सिक्कों का अभाव सा है । इसी आधार पर यह काल आर्थिक पतन का काल माना गया है । इसके विपरीत द्वितीय चरण में सिक्कों के मिल जाने से हम निष्कर्ष निकालते है कि इस समय व्यापार-वाणिज्य का पुनरुत्थान हुआ, जिससे देश आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हो गया ।
प्राचीन भारत के गणराज्यों का अस्तित्व मुद्राओं से ही प्रमाणित होता है । मालव, यौधेय आदि गणराज्यों तथा पांचाल के मित्रवंशी शासकों के विषय में हम मुख्यत: सिक्कों से ज्ञान प्राप्त करते हैं । कभी-कभी मुद्रा के अध्ययन से हमें सम्राटों के धर्म तथा उनके व्यक्तिगत गुणों का पता लग जाता है ।
उदाहरणार्थ हम कनिष्क तथा समुद्रगुप्त की मुद्राओं को ले सकते है । कनिष्क के सिक्कों से यह पता चलता है कि वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था । समुद्रगुप्त अपनी कुछ मुद्राओं पर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है । इससे उसका संगीत-प्रेम प्रकट होता है’ भारत के इण्डों-बख्त्री (Indo-Bactrian) शासकों के विषय में हमें उनके सिक्कों से ही ज्ञात होता है । इण्डो-यूनानी तथा इण्डो-सीथियन शासकों के इतिहास के प्रमुख सोत सिक्के ही है ।
शकपह्लव युग की मुद्राओं से उनकी शासन-पद्धति का ज्ञान होता है । इनके लेखों से पता चलता है कि पह्लव राजा अपने गवर्नर के साथ शासन करते थे । समुद्रगुप्त तथा कुमारगुप्त की अश्वमेध शैली की मुद्राओं से अश्व-मेध यज्ञ की सूचना मिलती है । सातवाहन नरेश शातकर्णि की एक मुद्रा पर जलपोत का चित्र उत्कीर्ण है जिससे ऐसा अनुमान लगाया गया है कि उसने समुद्र-विजय की थी । इसी प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की व्याघ्रशैली की मुद्राओं से उसकी पश्चिम भारत (गुजरात-काठियावाड़) के शकों की विजय सूचित होती है ।
(III) स्मारक:
इसके अन्तर्गत प्राचीन इमारतें, मन्दिर, मूर्तियों आदि आती हैं । इनसे विभिन्न युगों की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का बोध होता है । इनके अध्ययन से भारतीय कला के विकास का भी ज्ञान प्राप्त होता है । मन्दिर, विहारों तथा स्तूपों से जनता की आध्यात्मिकता तथा धर्मानिष्ठा का पता चलता है ।
हड़प्पा और मोहेनजोदडों की खुदाइयों से पाँच सहस्र वर्ष पुरानी सैंधव सभ्यता का पता चला है । खुदाई के अन्य प्रमुख स्थल तक्षशिला, मथुरा, सारनाथ, पाटलिपुत्र, नालन्दा, राजगृह, सांची और भरहुत आदि हैं । प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्वावधान में कौशाम्बी में व्यापक पैमाने पर खुदाई की गयी है । यहाँ से उदयन का राजप्रसाद एवं घोषिताराम नामक एक विहार मिला है ।
अतरंजीखेड़ा आदि की खुदाईयों से पता चलता है कि देश में लोहे का प्रयोग ईसा पूर्व 1000 के लगभग प्रारम्भ हो गया था । इसी प्रकार दक्षिण भारत के कई स्थानों से भी खुदाइयों की गई है । पाण्डिचेरी के समीप स्थित अरिकमेडु नामक स्थान की खुदाई से रोमन सिक्के, दीप का टुकड़ा, वर्तन आदि मिलते है जिनसे पता चलता है कि ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में रोम तथा दक्षिण भारत के बीच घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था ।
पत्तडकल, चित्तलदुर्ग, तालकड, हेलविड, मास्की, ब्रह्मगिरि आदि दक्षिण भारत के कुछ अन्य महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल हैं जहाँ से खुदाइयाँ हुई हैं । विभिन्न स्थानों से मापा सामग्रियों से प्राचीन इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर सुन्दर प्रकाश पड़ता है ।
देवगढ़ (झाँसी) का मन्दिर, भितर-गाँव का मन्दिर, अजन्ता की गुफाओं के चित्र, नालन्दा की बुद्ध की ताम्रमूर्ति आदि से हिन्दू कला एव सभ्यता के पर्याप्त विकसित होने के प्रमाण मिलते है । दक्षिण भारत से भी अनेक स्मारक प्राप्त होते है । तन्नोर का राजराजेश्वर मन्दिर द्रविड़ शैली का सबसे अच्छा उदाहरण है ।
पल्लवकाल के भी कई मन्दिर प्राप्त किये गये है । खजुराहो तथा उड़ीसा से प्राप्त बहुसख्यक मन्दिर हिन्दू-वास्तु एवं स्थापत्य के उत्कृष्ट स्वरूप को प्रकट करते है । भारत के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक द्वीपों से हिन्दू संस्कृति से सम्बन्धित स्मारक मिलते हैं ।
इनमें मुख्य रूप से जावा का बोरोबुदुर स्तुप तथा कम्बोडिया के अंकोरवाट मन्दिर का उल्लेख किया जा सकता है । इसी प्रकार मलाया, बोर्नियो, बाली आदि में हिन्दू संस्कृति से सम्बन्धित अनेक स्मारक प्राप्त हये हैं ।
इनसे इन द्वीपों में हिन्दू संस्कृति के पर्याप्त रूप से विकसित होने के प्रमाण मिलते हैं । इस प्रकार भारतीय साहित्य, विदेशी यात्रियों के विवरण तथा पुरातत्व-इन तीनों के सम्मिलित साक्ष्य के आधार पर हम भारत के प्राचीन इतिहास का पुनर्निर्माण कर सकते है ।
Related Articles:
- मेरा प्रिय विषय (इतिहास) पर निबंध | My Favourite Subject- History in Hindi
- इतिहास की पुनरावृत्ति होती है पर निबन्ध | Essay on History Repeats Itself in Hindi
- भारतीय नारी पर निबंध | Essay on Indian Woman in Hindi
- भारतीय कला पर निबंध | Essay on Indian Art | Hindi
45,000+ students realised their study abroad dream with us. Take the first step today
Here’s your new year gift, one app for all your, study abroad needs, start your journey, track your progress, grow with the community and so much more.
Verification Code
An OTP has been sent to your registered mobile no. Please verify
Thanks for your comment !
Our team will review it before it's shown to our readers.
क्या आप जानते हैं भारतीय इतिहास की इन महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में?
- Updated on
- जनवरी 24, 2024
भारत एक महान देश है जिसका इतिहास इतना समृद्ध है कि आपको हर कोने में छुपा हुआ मिलेगा। इतिहास का अध्ययन करने पर हम ये जान पाते हैं कि हमारे देश में सभ्यता और संस्कृति कैसे विकसित हुई, धर्म और धार्मिक व्यवहार कैसे अस्तित्व में आये या फिर कौन कौन सी कई ऐसी ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई है। भारतीय इतिहास की शुरुआत हज़ारों साल पहले होमो सेपियन्स के साथ हुई थी। होमो सेपियन्स अफ्रीका, दक्षिण भारत, बलूचिस्तान से होते हुए सिंधु घाटी पहुंचे और यहाँ नगरीकरण का बसाव किया जिससे सिंधु घाटी सभ्यता विकसित हुई। भारतीय इतिहास, सिंधु घाटी की रहस्यमई संस्कृति से शुरू होकर भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक फैला। इससे अधिक जानकारी के लिए ये ब्लॉग पूरा पढ़ें। इस ब्लॉग के माध्यम से आपको Indian History in Hindi के बारे में विस्तार से जानने को मिलेगा। आईये जानते हैं।
This Blog Includes:
भारतीय इतिहास के भाग , प्राचीन भारतीय इतिहास का घटनाक्रम, सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में विस्तार से, गुप्त साम्राज्य , मौर्य साम्राज्य का परिचय, मध्यकालीन भारत का घटनाक्रम, एंग्लो-मराठा युद्ध, मुगल साम्राज्य के तहत व्यापार का विकास, मुगल साम्राज्य के तहत कला और वास्तुकला, अवध का इतिहास, आधुनिक भारत का घटनाक्रम, इतिहास के प्रकार, इंडियन हिस्ट्री बुक्स इन हिंदी.
दुनिया के इतिहास की तरह, भारतीय इतिहास (History of India in Hindi) को विस्तार से समझने के लिये 3 भागों में वर्गीकृत किया गया है, जो कि निम्नलिखित हैं:-
- प्राचीन भारत
- मध्यकालीन भारत
- आधुनिक भारत
यह भी पढ़ें: हर्यक वंश का इतिहास
प्राचीन भारत का इतिहास
प्राचीन भारत का इतिहास पाषाण युग से लेकर इस्लामी आक्रमणों तक है। इस्लामी आक्रमण के बाद भारत में मध्यकालीन भारत की शरुआत हो जाती है।
Indian History in Hindi के इस ब्लॉग में प्राचीन भारतीय इतिहास के घटनाक्रम को विस्तार से जानते हैं।
- प्रागैतिहासिक कालः 400000 ई.पू.-1000 ई.पू. : इस समय में मानव ने आग और पहिये की खोज की।
- सिंधु घाटी सभ्यताः 2500 ई.पू.-1500 ई.पू. : सिंधु घाटी सभ्यता सबसे पहली व्यवस्थित रूप से बसी हुई सभ्यता थी। नगरीकरण की शरुआत सिंधु घाटी सभ्यता से मानी जाती है।
- महाकाव्य युगः 1000 ई.पू.-600 ई.पू. : इस समय काल में वेदों का संकलन हुआ और वर्णों के भेद हुए जैसे आर्य और दास।
- हिंदू धर्म और परिवर्तनः 600 ई.पू.-322 ई.पू. : इस समय में जाति प्रथा अपने चरम पर थी। समाज में आयी इस रूढ़िवादिता का परिणाम महावीर और बुद्ध का जन्म था। इस समय में महाजनपदों का गठन हुआ। 600 ई. पू.- 322 ई. पू. में बिम्बिसार, अजात शत्रु, शिशुनंगा और नंदा राजवंश का जन्म हुआ।
- मौर्य कालः 322 ई.पू.-185 ई.पू. चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित इस साम्राज्य में पूरा उत्तर भारत था, जिसका बिंदुसार ने और विस्तार किया। कलिंग युद्ध इस समयकाल की घटना है, जिसके बाद राजा अशोक ने बौद्ध धर्म अपनाया।
- आक्रमणः 185 ई.पू.-320 ईसवीः इस समयकाल में बक्ट्रियन, पार्थियन, शक और कुषाण के आक्रमण हुए। व्यापार के लिए मध्य एशिया खुला, सोने के सिक्कों का चलन और साका युग का प्रारंभ हुआ।
- दक्कन और दक्षिणः 65 ई.पू.-250 ईसवीः इस काल में चोल, चेर और पांड्या राजवंश ने दक्षिण भारत पर अपना शासन जमा रखा था। अजंता एलोरा की गुफाओं का निर्माण इसी समयकाल की देन है, इसके अलावा संगम साहित्य और भारत में ईसाई धर्म का आगमन हुआ।
- गुप्त साम्राज्यः 320 ईसवी-520 ईसवीः इस काल में चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की स्थापना की, उत्तर भारत में शास्त्रीय युग का आगमन हुआ, समुद्रगुप्त ने अपने राजवंश का विस्तार किया और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शाक के विरुद्ध युद्ध किया। इस युग में ही शाकुंतलम और कामसूत्र की रचना हुई। आर्यभट्ट ने खगोल विज्ञान में अद्भुत कार्य किए और भक्ति पंथ भी इस समय उभरा।
- छोटे राज्यों का उद्भव : 500 ईसवी-606 ईसवीः इस युग में हूणों के उत्तर भारत में आने से मध्य एशिया और ईरान में पलायन देखा गया। उत्तर में कई राजवंशों के परस्पर युद्ध करने से बहुत से छोटे राज्यों का निर्माण हुआ।
- हर्षवर्धनः 606 ई-647 ईसवीः हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनत्सांग ने भारत की यात्रा की। हूणों के हमले से हर्षवर्धन का राज्य कई छोटे राज्यों में बँट गया। इस समय में दक्कन और दक्षिण बहुत शक्तिशाली बन गए।
- दक्षिण राजवंशः 500ई-750 ईसवीः इस समय में में चालुक्य, पल्लव और पंड्या साम्राज्य का उद्भव हुआ और पारसियों का भारत आगमन हुआ था।
- चोल साम्राज्यः 9वीं सदी ई-13वीं सदी ईसवीः विजयालस द्वारा स्थापित चोल साम्राज्य ने समुद्र नीति अपनाई। इस समय में मंदिर सांस्कृतिक और सामाजिक केन्द्र होने लगे और द्रविड़ियन भाषा फलने फूलने लगी।
- उत्तरी साम्राज्यः 750ई-1206 ईसवीः इस समय राष्ट्रकूट ताकतवर हुआ, प्रतिहार ने अवंति और पलस ने बंगाल पर शासन किसा। इसी के साथ मध्य भारत में राजपूतों का उदय हो रहा था। इस समय में भारत पर तुर्क आक्रमण हुआ जिसके बाद मध्यकालीन भारत का प्रारम्भ हुआ।
सिंधु घाटी की सभ्यता के साथ भारतीय इतिहास का जन्म हुआ था। सिंधु घाटी की सभ्यता दक्षिण एशिया के पश्चिमी हिस्से में लगभग 2500 BC में फैली हुई है। Indian History in Hindi में सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी नीचे दी गई है:
- यह क्षेत्र आज के समय में पाकिस्तान और पश्चिमी भारत के नाम से जाना जाता है।
- सिंधु घाटी मिश्र
- मेसोपोटामिया
- 1920 तक मनुष्य को सिंधु घाटी की सभ्यता के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था।
- घरेलू सामान
- युद्ध के हथियार
- सोने के आभूषण
- चांदी के आभूषण
- सिंधु घाटी की सभ्यता को व्यापार के केंद्र के नाम से भी जाना जाता है।
- यहाँ सभी चीजों की देखभाल बहुत ही अच्छी तरीके से रखी जाती थी।
- सिंधु घाटी सभ्यता में चौड़ी सड़कें और सुविकसित निकास प्रणाली भी स्थित थे।
- यहां पर घरों पर पुताई होती थी और घर ईटों से बने होते थे।
- साथ ही यहां पर दो या दो से अधिक मंजिलें भी होती थीं।
- हड़प्पा सभ्यता का 1500 BC तक अंत हो गया था।
- माना जाता है कि प्राकृतिक आपदाओं के आने के कारण सिंधु घाटी की सभ्यता भी नष्ट हो गई थी।
यह भी पढ़ें : भारत का इतिहास
भगवान बुद्ध को गौतम बुद्ध, सिद्धार्थ और तथागत के भी नाम से जाना जाता है। बुद्ध के पिता का नाम कपिलवस्तु था, वह राजा शुद्धोदन थे और इनकी माता का नाम महारानी महामाया देवी था। बुद्ध की पत्नी का नाम यशोधरा था और उनके पुत्र का नाम राहुल था। भगवान बुद्ध का जन्म वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन नेपाल के लुम्बिनी में ईसा पूर्व 563 को हुआ था। यह बात जानने को मिली कि इसी दिन 528 ईसा पूर्व में उन्होंने भारत के बोधगया में सत्य को जाना और साथ में इसी दिन वे 483 ईसा पूर्व को 80 वर्ष की उम्र में भारत के कुशीनगर में निर्वाण (मृत्यु) को प्राप्त हुए।
Indian History in Hindi में अब बौद्ध धर्म के बारे में विस्तार से जानते हैं। इतिहास में इस बात का उल्लेख भी किया गया है कि जब महात्मा बुद्ध को सच्चे बोध की प्राप्ति हुई उसी वर्ष आषाढ़ की पूर्णिमा को वे काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। यह बात भी जानने को मिलती है कि वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया, जिसमें उन्होंने लोगों से मध्यम मार्ग अपनाने के लिए कहा। साथ में इस बात का उल्लेख भी हुआ है कि उन्होंने चार आर्य सत्य अर्थात दुःखों के कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया, अहिंसा पर जोर दिया, और यज्ञ, कर्म कांड और पशु-बलि की निंदा की।
यह भी पढ़ें : झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन की कहानी
गुप्त साम्राज्य के दो महत्वपूर्ण राजा हुए, समुद्रगुप्त और दूसरे चंद्रगुप्त द्वितीय। गुप्त वंश के लोगों के द्वारा ही संस्कृत की एकता फिर एकजुट हुई। चंद्रगुप्त प्रथम ने 320 ईस्वी को गुप्त वंश की स्थापना की थी और यह वंश करीब 510 ई तक शासन में रहा। 463-473 ई में सभी गुप्त वंश के राजा थे, केवल नरसिंहगुप्त बालादित्य को छोड़कर। बालादित्य ने बौद्ध धर्म अपना लिया था, शुरुआत के दौर में इनका शासन केवल मगध पर था, पर फिर धीरे-धीरे संपूर्ण उत्तर भारत को इन्होने अपने अधीन कर लिया था। गुप्त वंश के सम्राटों में क्रमश : श्रीगुप्त, घटोत्कच, चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चंद्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेंद्रादित्य) और स्कंदगुप्त हुए। देश में कोई भी ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थी , जो अलग-अलग छोटे-बड़े राज्यों को विजित कर एकछत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना कर पाती । यह जो काल था वह किसी महान सेनानायक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सर्वाधिक सुधार का अवसर के बारे में बता रहा था। फलस्वरूप मगध के गुप्त राजवंश में ऐसे महान और बड़े सेनानायकों का विनाश हो रहा था ।
मौर्य साम्राज्य मगध में स्थित दक्षिण एशिया में भौगोलिक रूप से व्यापक लौह युग की ऐतिहासिक शक्ति थी, जिसकी स्थापना चंद्रगुप्त मौर्य ने 322 ई.पू. मौर्य साम्राज्य को भारत-गंगा के मैदान की विजय द्वारा केंद्रीकृत किया गया था, और इसकी राजधानी पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) में स्थित थी। इस शाही केंद्र के बाहर, साम्राज्य की भौगोलिक सीमा सैन्य कमांडरों की वफादारी पर निर्भर करती थी, जो इसे छिड़कने वाले सशस्त्र शहरों को नियंत्रित करते थे। अशोक के शासन (268-232 ईसा पूर्व) के दौरान, साम्राज्य ने गहरे दक्षिण को छोड़कर भारतीय उपमहाद्वीप के प्रमुख शहरी केंद्रों और धमनियों को संक्षेप में नियंत्रित किया। अशोक के शासन के लगभग 50 वर्षों के बाद इसमें गिरावट आई, और पुष्यमित्र शुंग द्वारा बृहदरथ की हत्या और मगध में शुंग वंश की नींव के साथ 185 ईसा पूर्व में भंग कर दिया गया।
मध्यकालीन भारत का इतिहास
मध्यकालीन भारत की शुरुआत भारत पर इस्लामी आक्रमण से मानी जाती है। वर्तमान के उज़बेकिस्तान के शासक तैमूर और चंगेज़ खान के वंशज बाबर ने सन् 1526 में खैबर दर्रे को पार किया और वहां मुगल साम्राज्य की स्थापना की, जहां आज अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत और बांग्लादेश स्थित हैं। बाबर के भारत आने के साथ भारत में मुग़ल वंश की स्थापना हुई। सन् 1600 तक मुगल वंश ने भारत पर राज किया। सन् 1700 ई. के बाद इस वंश का पतन होने लगा और ब्रिटिश सत्ता फैलने लगी। भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के समय सन् 1857 में मुग़ल वंश का पूरी तरह खात्मा हो गया।
Indian History in Hindi के इस ब्लॉग में मध्यकालीन भारत का घटनाक्रम नीचे दिया गया है :-
- प्रारंभिक मध्यकालीन युग ( 8वीं से 11 वीं शताब्दी ): इस समयकाल में गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद और दिल्ली सल्तनत का प्रारंभ हुआ जिसके परिणाम स्वरूप भारतवर्ष कई छोटे राज्य में बट गया था।
- गत मध्यकालीन युग ( 12वीं से 18वीं शताब्दी ): इस समयकाल में पश्चिम में मुस्लिम आक्रमणों ने तेजी पकड़ ली थी तो दूसरी तरफ दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैयद वंश और लोदी वंश का उद्भव हुआ।
- विजयनगर साम्राज्य का उदय: विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाइयों ने की थी। यह उस समय का एकमात्र हिन्दू राज्य था जिस पर अल्लाउदीन खिलजी ने आक्रमण किया था। जिसके बाद हरिहर और बुक्का ने मुस्लिम धर्म अपना लिया।
- मुग़ल वंश: मुग़ल वंश के प्रारंभ के साथ दिल्ली सल्तनत का अंत हो गया। बाबर के भारत पर आक्रमण करने के बाद भारत में मुग़ल वंश की स्थापना की।1857 की क्रांति के साथ ही मुग़ल वंश का पतन हो गया और ब्रिटिश शासन के साथ आधुनिक भारत की शुरुआत हुई।
Indian History in Hindi की सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक, एंग्लो-मराठा युद्ध, मराठों और अंग्रेजों के बीच संघर्ष की घटनाओं को कवर करता है। मराठों की हार के बाद 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मरने वाले शासक बालाजीबाजी राव थे। वह अपने बेटे माधव राव द्वारा शुरू किए गए युद्ध में लड़ रहे थे जो कि असफल हो गया था। जबकि बालाजी बाजी राव के भाई रघुनाथ राव अगले पेशवा बन गए। अंग्रेजों ने 1772 में माधव राव की मृत्यु के बाद मराठों के साथ पहला युद्ध लड़ा। Indian History in Hindi के इस ब्लॉग में नीचे उन घटनाओं का सारांश है जो मध्यकालीन भारत के इस महत्वपूर्ण चरण को समझने में आपकी मदद करेंगे, जो एंग्लो-मराठा युद्ध के दौरान हुई थीं:
- माधवराव प्रथम की मृत्यु के बाद, मराठा शिविर में संघर्ष हुआ। नारायणराव पेशवा बनने की राह पर थे, हालांकि, उनके चाचा रघुनाथराव ने भी पुजारी बनना चाहा।
- इसलिए, अंग्रेजों के हस्तक्षेप के बाद, सूरत संधि पर 1775 में हस्ताक्षर किए गए थे। संधि के अनुसार, रघुनाथराव ने सालसेट और बेससीन के बदले में 2500 सैनिकों को अंग्रेजों को दे दिया।
- वारेन हेस्टिंग्स के तहत, ब्रिटिश कलकत्ता परिषद ने इस संधि को रद्द कर दिया और पुरंदर संधि 1776 में कलकत्ता परिषद और एक मराठा मंत्री, नाना फड़नवीस के बीच संपन्न हुई।
- नतीजतन, केवल रघुनाथराव को पेंशन प्रदान की गई और अंग्रेजों ने सालसेट को बरकरार रखा।
- लेकिन बंबई के ब्रिटिश प्रतिष्ठान ने इस संधि का उल्लंघन किया और रघुनाथराव को ढाल दिया।
- 1777 में, नाना फडणवीस ने कलकत्ता परिषद के साथ अपनी संधि के खिलाफ जाकर फ्रांस के पश्चिमी तट पर एक बंदरगाह प्रदान किया।
- इसने अंग्रेजों को पुणे भेजने के लिए नेतृत्व किया। पुणे के पास वडगाँव में एक लड़ाई हुई जिसमें महादजी शिंदे के अधीन मराठों ने अंग्रेजी पर एक निर्णायक जीत का दावा किया।
- 1779 में, अंग्रेजों को वाडगांव संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया गया था।
- एंग्लो-मराठा युद्धों के अंत में, सालबाई की संधि 1782 में संपन्न हुई जिसने Indian history in Hindi में एक घटनापूर्ण मील का पत्थर बनाया।
मुगल साम्राज्य का उदय भारतीय इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है। मुगल साम्राज्य के आगमन से भारत में आयात और निर्यात में वृद्धि हुई। विदेशी लोग व्यापार के लिए भारत आने लगे जैसे डच, यहूदी, ब्रिटिश।
- पूरे क्षेत्र में बड़ी संख्या में भारतीय व्यापारिक समूह फैले हुए थे। इनमें लंबी दूरी के व्यापारी सेठ और बोहरा शामिल थे; बनिक- स्थानीय व्यापारी; बंजारों ने अक्सर बैलों की पीठ पर अपने माल के साथ लंबी दूरी की यात्रा की, व्यापारियों का एक और वर्ग जो थोक वस्तुओं के परिवहन में विशेषज्ञता रखते थे। साथ ही, नदियों में नावों पर भारी सामान लाया जाता था।
- हिंदू, जैन और मुसलमान गुजराती व्यापारियों में से थे, जबकि ओसवाल, महेश्वरियां और अग्रवाल राजस्थान में मारवाड़ी कहे जाने लगे।
- दक्षिण भारत में, सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक समाज कोरोमंडल, द चेटिस, द मुस्लिम मालाबार व्यापारियों, आदि बंगाल-चीनी, चावल के साथ-साथ नाजुक मलमल और रेशम के तट पर थे।
- गुजरात, जहाँ से बढ़िया वस्त्र और रेशम उत्तरी भारत में ले जाया जाता था, विदेशी वस्तुओं के लिए एक प्रवेश बिंदु था। कुछ धातुएँ जैसे धातुएँ भारत में मुख्य आयात थीं। कॉपर और टिन, वॉरहॉर्स और वॉरहॉर्स, हाथी दांत, सोने और चांदी के आयात सहित लक्जरी टुकड़े व्यापार द्वारा संतुलित हैं।
Samrat Ashoka History in Hindi
भारतीय ऐतिहासिक स्मारकों का ढेर मुगलों के शासनकाल के दौरान बनाया गया और भारतीय इतिहास का एक अनिवार्य हिस्सा बन गया। यहां मुगल साम्राज्य के तहत लोकप्रिय कला और वास्तुकला का एक सारांश है:
- मुगल बहते पानी के साथ उद्यान बिछाने के शौकीन थे। मुगलों के कुछ बाग कश्मीर के निशात बाग, लाहौर के शालीमार बाग और पंजाब के पिंजौर के बाग़ में हैं।
- शेरशाह के शासनकाल के दौरान, बिहार के सासाराम में मकबरा और दिल्ली के पास पुराण किला बनाया गया था।
- अकबर की सुबह के साथ, व्यापक पैमाने पर इमारतों का निर्माण शुरू हुआ। कई किले उसके द्वारा डिजाइन किए गए थे और सबसे प्रमुख आगरा का किला था। इसे लाल बलुआ पत्थर से बनाया गया था। उनके अन्य गढ़ लाहौर और इलाहाबाद में हैं।
- दिल्ली में प्रसिद्ध लाल किला का निर्माण शाहजहाँ ने अपने रंग महल, दीवान-ए-आम और दीवान-ए-ख़वासस्व के साथ करवाया था।
- फतेहपुर सीकरी में एक महल सह किला परिसर भी अकबर (विजय शहर) द्वारा बनाया गया था।
- इस परिसर में कई गुजराती और बंगाली शैली की इमारतें भी पाई जाती हैं।
- उनकी राजपूत माताओं के लिए, संभवतः गुजराती शैली की इमारतों का निर्माण किया गया था। इसमें सबसे राजसी संरचना जामा मस्जिद और इसके प्रवेश द्वार है, जिसे बुलंद दरवाजा या बुलंद गेट के रूप में जाना जाता है।
- प्रवेश द्वार की ऊंचाई 176 फीट है। इसे गुजरात पर अकबर की जीत की याद में बनाया गया था।
- जोधाबाई का महल और पांच मंजिला पंच महल फतेहपुर सीकरी की अन्य महत्वपूर्ण इमारतें हैं।
- हुमायूं का मकबरा दिल्ली में अकबर के शासन के दौरान बनाया गया था, और इसमें संगमरमर का एक विशाल गुंबद था।
- अकबर का मकबरा आगरा के पास सिकंदरा में जहाँगीर ने बनवाया था।
- आगरा में इतमाद दौला के मकबरे का निर्माण नूरजहाँ ने करवाया था।
- ताजमहल का निर्माण यह पूरी तरह से सफेद संगमरमर से बना था, जिसमें अर्ध-कीमती पत्थरों से बनी दीवारों पर पुष्प डिजाइन थे। शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान, यह विधि अधिक लोकप्रिय हो गई।शाहजहाँ द्वारा निर्मित, ताजमहल को इतिहास के सात आश्चर्यों में से एक माना जाता है। इसके निर्माण के लिए, पिएट्रा ड्यूरा प्रक्रिया का व्यापक स्तर पर उपयोग किया गया था। इसमें उन सभी स्थापत्य रूपों को शामिल किया गया है जो मुगलों ने बनाए थे। ताज की मुख्य महिमा विस्तृत गुंबद और चार पतला मीनारें हैं जिनकी सजावट को न्यूनतम रखा गया है।
Indian History in Hindi में अवध के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं नीचे दी गई है:
- अवध उत्तर भारत का ऐतिहासिक क्षेत्र था, जो अब उत्तर प्रदेश राज्य का उत्तर-पूर्वी भाग है। इसने अपना नाम कोसला की राजधानी अयोध्या साम्राज्य से लिया और 16 वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य का हिस्सा बन गया।
- 1800 में, ब्रिटिश ने अपने साम्राज्य के हिस्से के रूप में खुद को अधीन कर लिया। 1722 ई। में अवध का सूबा आजाद हुआ, मुग़ल सम्राट मुहम्मद शा ने एक फ़ारसी शिया को सआदत ख़ान को अवध का गवर्नर नियुक्त किया।
- सआदत खान ने सैय्यद भाइयों को उखाड़ फेंकने में मदद की। सआदत खान को राजा द्वारा नादिर शाह के साथ बातचीत करने के लिए प्रतिनियुक्त किया गया था ताकि वह शहर को नष्ट करने और बड़ी राशि के भुगतान के लिए अपने देश लौटने के लिए इच्छुक हो सके। जब नादिर शाह वादा किए गए धन को पाने में विफल रहे, तो उनका गुस्सा दिल्ली के लोगों ने महसूस किया। उन्होंने एक सामान्य वध का आदेश दिया था। सआदत खान ने अपमान और शर्म के कारण आत्महत्या कर ली।
- सफदर जंग, जिसे मुगल साम्राज्य का वजीर भी कहा जाता था, अवध का अगला नवाब था। वह अपने चाचा शुजाउद्दौला द्वारा सफल हो गया था। अवध राजा द्वारा एक मजबूत सेना का आयोजन किया गया, जिसमें मुस्लिम और हिंदू, नागा और सन्यासियों के साथ-साथ शामिल थे। अवध शासक का अधिकार दिल्ली के पूर्व क्षेत्र रोहिलखंड तक था। उत्तर-पश्चिमी सीमांत की पर्वत श्रृंखलाओं से बड़ी संख्या में अफगान, जिन्हें रोहिल कहा जाता है, उसमें बस गए।
Indian National Movement(भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन)
अवध नवाबों का सारांश
- सआदत खाँ बुरहान-उल-मुल्क (1722-1739 ई।): एक स्वायत्त राज्य के रूप में, उन्होंने 1722 ई। में अवध की स्थापना की। नादिर शाह के आक्रमण के दौरान, उन्हें मुगल बादशाह मुहम्मद शाह द्वारा गवर्नर नामित किया गया था और इसमें एक बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी शाही मामले उन्होंने नाम और सम्मान की खातिर आत्महत्या कर ली।
- सफदर जंग / अदबुल मंसूर (1739-1754 ई।): अहमद शाह अब्दाली के खिलाफ मानपुर की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले सआदत खान, सआदत खान (1748 ई।) के दामाद थे।
- शुजा-उद-दौला (1754-1775 ई।): सफदरजंग का बेटा, वह अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली का सहयोग था। रोहिल्ला को अंग्रेजों की सहायता से हराकर उसने विज्ञापन 1774 में रोहिलखंड को अवध में वापस कर दिया।
- आसफ-उद-दौला: वह लखनऊ की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए प्रसिद्ध थे और उन्होंने इमामबाड़ा और रूमी दरवाजा जैसे महत्वपूर्ण स्मारकों का निर्माण किया। उन्होंने अंग्रेजों के साथ फैजाबाद (1755 ई।) संधि का समापन किया।
- वाजिद अली शाह: उन्हें व्यापक रूप से जान-ए-आलम और अख्तर पिया और अवध के अंतिम राजा के रूप में कहा जाता था, लेकिन ब्रिटिश लॉर्ड डलहौजी को गलतफहमी के आधार पर हटा दिया गया था। शास्त्रीय संगीत और नृत्य शैलियों के कालका-बिंदा भाइयों जैसे कलाकारों के साथ, वहां के दरबार में स्पॉट किए गए।
आधुनिक भारत का इतिहास
मुग़ल काल के पतन से लेकर भारत की आजादी तक और वर्तमान को आधुनिक भारत की श्रेणी में रखा गया है। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में अंग्रेजी शासन से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिये भारत में संघर्ष प्रारंभ हो गए थे। इस समयकाल ने आंदोलन, क्रांति, विरोध को जन्म दिया।
यह भी पढ़ें : भगवान बुद्ध का परिचय
इंडियन हिस्ट्री इन हिंदी के इस ब्लॉग में आइए आधुनिक भारत का घटनाक्रम जानते है :-
- क्षेत्रीय राज्यों का उदय और यूरोपीय शक्ति: इस समय में पंजाब, मैसूर, अवध, हैदराबाद, बंगाल जैसे छोटे राज्यों का विस्तार हुआ। इसके साथ ही पुर्तगाली उपनिवेश, डच उपनिवेश, फ्रांसीसी उपनिवेश और अंग्रेज उपनिवेश की स्थापना हुई।
- ब्रिटिश सर्वोच्चता और अधिनियम: इस समय ने बक्सर की लड़ाई, सहायक संधि, व्यपगत का सिद्धांत, रेग्युलेटिंग एक्ट 1773, पिट्स इंडिया एक्ट 1784, चार्टर अधिनियम,1793, 1813 का चार्टर अधिनियम, 1833 ई. का चार्टर अधिनियम, 1853 ई. का चार्टर अधिनियम, 1858 ई. का भारत सरकार अधिनियम,1861 का अधिनियम,1892 ई. का अधिनियम,1909 ई. का भारतीय परिषद् अधिनियम, भारत सरकार अधिनियम – 1935, मोंटेंग्यु-चेम्सफोर्ड सुधार अर्थात भारत सरकार अधिनियम-1919 जैसे घटनाओं को अंजाम दिया।
- 18वीं सदी के विद्रोह और सुधार: इस समय काल में रामकृष्ण, विवेकानंद, ईश्वरचंद विद्यासागर, डेजेरियो और यंग बंगाल, राममोहन रॉय और ब्रह्म समाज जैसे समाज सुधारकों का जन्म हुआ।
- भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन: इस समय काल में भारत को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र कराने के लिए कई प्रकार के आंदोलनों का उद्भव हुआ जैसे: शिक्षा का विकास, भारतीय प्रेस का विकास, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, जलियाँवाला बाग, मुस्लिम लीग की स्थापना, रौलट विरोधी सत्याग्रह, स्वदेशी आन्दोलन, अराजक और रिवोल्यूशनरी अपराध अधिनियम 1919, खिलाफ़त और असहयोग आन्दोलन, साइमन कमीशन, नेहरू रिपोर्ट, भारत छोड़ो आन्दोल, कैबिनेट मिशन प्लान, अंतरिम सरकार, संवैधानिक सभा, माउंटबेटन योजना और भारत के विभाजन, दक्षिण भारत में सुधार, पश्चिमी भारत में सुधार आन्दोलन, सैय्यद अहमद खान और अलीगढ़ आन्दोलन, मुस्लिम सुधार आन्दोलन आदि।
यह भी पढ़ें : गुप्त साम्राज्य (Gupta Dynasty in Hindi)
इंडियन हिस्ट्री इन हिंदी में इतिहास के प्रकारों की सूची नीचे दी गई है:
- राजनीतिक इतिहास
- सामाजिक इतिहास
- साँस्कृतिक इतिहास
- धार्मिक इतिहास
- आर्थिक इतिहास
- संवैधानिक इतिहास
- राजनयिक इतिहास
- औपनिवेशक इतिहास
- संसदीय इतिहास
- सैन्य इतिहास
- विश्व का इतिहास
- क्षेत्रीय इतिहास
इंडियन हिस्ट्री बुक्स की सूची नीचे दी गई है:
भारत की सभ्यता को लगभग 8,000 साल पुरानी माना जाता है।
माना जाता है की ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारत नाम पड़ा।
तीन प्राचीन काल मध्यकालीन काल आधुनिक काल
आशा करते हैं कि आपको Indian History in Hindi के बारे में पूर्ण जानकारी मिल गई होगी। इसी तरह के अन्य ब्लॉग्स पढ़ने के लिए बने रहिए हमारी वेबसाइट Leverage Edu के साथ।
Team Leverage Edu
प्रातिक्रिया दे जवाब रद्द करें
अगली बार जब मैं टिप्पणी करूँ, तो इस ब्राउज़र में मेरा नाम, ईमेल और वेबसाइट सहेजें।
Contact no. *
आपका बहुत आभार।
Leaving already?
8 Universities with higher ROI than IITs and IIMs
Grab this one-time opportunity to download this ebook
Connect With Us
45,000+ students realised their study abroad dream with us. take the first step today..
Resend OTP in
Need help with?
Study abroad.
UK, Canada, US & More
IELTS, GRE, GMAT & More
Scholarship, Loans & Forex
Country Preference
New Zealand
Which English test are you planning to take?
Which academic test are you planning to take.
Not Sure yet
When are you planning to take the exam?
Already booked my exam slot
Within 2 Months
Want to learn about the test
Which Degree do you wish to pursue?
When do you want to start studying abroad.
January 2025
September 2025
What is your budget to study abroad?
How would you describe this article ?
Please rate this article
We would like to hear more.
Join WhatsApp
Join telegram, भारत का इतिहास (indian history in hindi) | bharat ka itihas.
भारतीय इतिहास की जड़ें काफी गहरे तक अपनी पकड़ जमाए हुए हैं, जिसे जानना आज के युवाओं के लिए बेहद आवश्यक है। भारत का इतिहास एक ऐसा रोचक, तथ्यात्मक और महत्त्वपूर्ण विषय है जिसपर जितना पढ़ा और लिखा जाए उतना ही कम है। इस लेख में भारतीय इतिहास के प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल को समझने का प्रयास किया गया है। वर्तमान भारत, भारतीय इतिहास और परंपराओं के आधार पर निर्मित है।
इतिहास क्या है?
इतिहास के अन्तर्गत मानव द्वारा किए गए अतीत के प्रयासों को रखा जाता है। प्राचीन भारत का इतिहास मानव सभ्यता के निर्माण के साथ जुड़ा हुआ है। जब मनुष्य जीवन के साक्ष्य उपलब्ध न हों, तो उसे प्राक् इतिहास की संज्ञा दी जाती है, आगे जाकर उस समय से संबंधित अवशेषों की प्राप्ति से हमें उस काल के विषय में जानकारियाँ मिलती हैं। आज का मानवीय विकास इसी क्रमिक विकास का परिणाम है। भारत का इतिहास बेहद विविध और विस्तृत है, इसमें अनेक युग और समय के चक्र शामिल हैं। यह इतिहास 65000 साल पुराना है, जिसकी शुरुआत होमो सेपीयन्स के साथ मानी जाती है। इन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता का विकास किया।
Join Telegram Channel
प्राचीन भारत का इतिहास
सिंधु घाटी सभ्यता.
- भारतीय इतिहास के विद्वानों का मानना था कि सिकंदर से पहले भारत में कोई सभ्यता नहीं थी, पुरातत्ववादियों ने 20वीं सदी के तीसरे दशक में ‘सिंधु घाटी सभ्यता’ और ‘हड़प्पा सभ्यता’ की खोज की।
भौगोलिक विस्तार
- भारत के अलावा इस सभ्यता का विस्तार पकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के कुछ क्षेत्रों में भी मिलता है। यह 13 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में त्रिभुजाकार आकृति में फैली थी।
- 1921 में भारतीय पुरातत्व विभाग के अध्यक्ष सर दयाराम साहनी के नेतृत्व में ‘हड़प्पा सभ्यता’ की खोज की गई। सिंधु घाटी सभ्यता में चार प्रजातियों का निवास था- भूमध्यसागरीय, माँगोलॉयड, अल्पाइन और प्रोटो औसट्रेलॉयड।
- नई खोज के अनुसार ये सभ्यता करीब 8000 साल पुरानी है। पुरातत्ववादियों ने इस सभ्यता का निर्धारण यहाँ पर पाए गए कंकालों के आधार पर किया, जिसमें मोहनजोदड़ो में सबसे अधिक कंकाल पाए गए।
भारत से जुड़ी ये जानकारी भी पढ़ें-
सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल
- हड़प्पा – 1921 में सर्वप्रथम खोज हड़प्पा की हुई। वर्तमान में यह पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में मोंटमोगरी जिले में स्थित है। इसे स्टुअर्ट पिग्गट ने ‘अर्द्ध औद्योगिक नगर’ की संज्ञा दी है।
- मोहनजोदड़ों – इसका अर्थ है, ‘लाशों का टीला’। यह पाकिस्तान के सिंधु नदी के तट पर स्थित है। इसकी शासन व्यवस्था जनतंत्रात्मक थी।
- लोथल – यह गुजरात के अहमदाबाद के गाँव में दक्षिण में स्थित भोगवा नदी के पास है। इसकी खोज 1955 में हुई। यह एक बंदरगाह थी, जो पश्चिमी एशिया में व्यापार के लिए बेहद अहम थी।
- कालीबांगा – इसकी स्थिति राजस्थान में घग्घर नदी के किनारे है। इसका अर्थ होता है ‘काले रंग की चूड़ियाँ’।
वैदिक सभ्यता
- वैदिक अथवा आर्य सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता के बाद आई। आर्यों ने ही वैदिक संस्कृति का निर्माण किया, इस संस्कृति में आर्य शब्द का प्रयोग श्रेष्ठता के लिए किया जाता है। आर्य संस्कृत भाषा का प्रयोग करते थे।
- (ऋग्वैदिक काल 1500 से 1000 ई. पूर्व) इस काल में ऋग्वेद संहिता की रचना हुई। इस काल में आर्यों का जीवन कृषि और पशु चारण पर निर्भर था। अवेस्ता (ईरानी भाषा का प्राचीन ग्रंथ) से ऋग्वेद की कुछ बातें मिलतीं हैं।
- ऋग्वेद में आर्यों का निवास स्थान सप्त सैन्धव (सात नदियों का क्षेत्र) है, जिसमें सतलज, व्यास, रावी, झेलम और चेनाब शामिल हैं। आर्यों का विस्तार पाकिस्तान, पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश के पश्चिम तक था।
- गंगा और यमुना के आसपास के क्षेत्रों में कब्जा कर इस क्षेत्र को ब्रह्यवृत कहा गया, उत्तर भारत में आर्यों के कब्जे के बाद इस क्षेत्र को आर्यवृत कहा जाने लगा।
उत्तरवैदिक काल
- इस समय में वैदिक सभ्यता का विस्तार होने लगा और जनपदों का निर्माण हुआ। इस काल में वर्णों का विभाजन हुआ। महिलाओं को पुरुषों की तुलना में हेय समझा जाने लगा, जिसके चलते ब्राह्मण के विरोध में स्वर ऊंचा होने लगा।
वैदिक साहित्य
- इस युग का प्रमुख साहित्य था- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद् आदि।
महाजनपदों का विस्तार
- आर्यों के विलीनीकरण के कारण महाजनपदों का निर्माण हुआ। ये 16 महाजनपद थे, इनका विस्तार छठी शताब्दी ईसापूर्व में हुआ। इस समय में भारत में व्यापार और संवृद्धि हुई, इसलिए इसे भारत के राजनैतिक इतिहास का प्रारंभ माना जाता है।
- इस शताब्दी में बिहार और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में लोहे का इस्तेमाल व्यापक स्तर पर हुआ, इसने व्यापार और वाणिज्य को बल प्रदान किया, जिससे क्षेत्रीय वर्गों को काफी फायदा मिला।
- महाजनपदों का वर्णन बौद्ध और जैन ग्रंथों में मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में महाजनपदों की संख्या 16 बताई गईं हैं।
मौर्य साम्राज्य
- इस साम्राज्य के साक्ष्य जैन और बौद्ध साहित्य में मिलते हैं, विदेशी लेखकों में एरियन आदि कई लेखकों ने मौर्य वंश के बारे में लिखा।
- यूनानी विद्वानों जैसे जस्टिन ने चनद्रगुप्त को ‘सैंड्रोकोट्स’ कहा। सेल्यूकस निकेटर के राजदूत मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त के दरबार में आया, इसने पाटलिपुत्र का वर्णन ‘इंडिका’ नामक पुस्तक में किया।
- कई पुरातत्व साक्ष्य भी भारत में मौर्य वंश की मौजूदगी के परिणाम हैं, भारत, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान में अशोक के 40 से भी ज्यादा अभिलेख मिले हैं।
मौर्यवंश की स्थापना
- मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने अपने गुरु चाणक्य के साथ मिलकर चौथी शताब्दी ई. पूर्व में क्रूर शासक घनानंद को हराकर मगध में की, पाटलिपुत्र इसकी राजधानी थी।
मौर्यवंश के प्रमुख शासक
- चन्द्रगुप्त मौर्य (322 ई. से 298 ई. पूर्व)
- बिन्दुसार (297 ई. से 273 ई. पूर्व)
- अशोक (268 ई. पूर्व से 232 ई. पूर्व)
मौर्योत्तर काल
- मौर्यों के अंतिम शासक वृहद्रथ की हत्या कर शंगु वंश ने कब्जा कर लिया, जिसके प्रमाण साहित्य और पुरातत्व दोनों से प्राप्त हुए।
- यह काल दक्षिण भारत के इतिहास का प्रमाण है, इसका अर्थ है मिलन या संगोष्ठी जो तमिल के कवियों और लेखकों से संबंधित है। इसमें लेखक अपने लेखों और रचनाओं को संगम में एकत्रित अन्य लेखकों के सामने रखते थे, और स्वीकृति मिलने के बाद इनका प्रकाशन किया जाता था।
- ऋषि अगस्त्य ने दक्षिण भारत में वैदिक संस्कृति का प्रसार किया। इसके प्रमाण संगम साहित्य से ही मिलते हैं।
- संगम से संबंधित यह दक्षिणी प्राचीन साहित्य ही संगम साहित्य है। संगम युग की जानकारी भी इसी साहित्य से प्राप्त की जाती है, जिसकी उपलब्धता 9 खंडों में है।
गुप्त साम्राज्य
- शक और कुषाण शासन की राजनीतिक स्थिति चौथी सदी ई. पूर्व में कमजोर होती दिखी, जिसके बाद गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ।
- कुषाणों के बाद चार सदियों तक भारत में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास हुआ, जिसके पीछे गुप्त शासन के राजा थे। इन्होंने पहले बिहार और उत्तर प्रदेश में राज किया। गुप्तों की मुद्राओं के अभिलेख उत्तर प्रदेश में पाए गए।
- साहित्यिक स्त्रोत- रामगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय की जानकारी विशाखादत्त के नाटक से मिलती है, इसके अलावा कालिदास की रचनाएं- मेघदूत, अभिज्ञान शकुंतलं, और वात्स्यायन के कामसूत्र से भी मिलती है।
- पुरातत्व स्त्रोत – गुप्त अभिलेखों के सिक्के और स्मारक से इनके होने का पता चलता है। स्कंदगुप्त ने सुदर्शन झील का दुबारा निर्माण कराया। इसके विषय में जानकारी जूनागढ़ अभिलेख देते हैं।
गुप्त काल में सोने के सिक्के दीनार , चांदी के सिक्के ‘ रुपक ‘ और तांबे के सिक्के ‘ माषक ‘ कहे जाते थे। ये सिक्के राजस्थान के गाँव बयाना से मिले। भारत में पाए जाने वाली अजंता और बाग की गुफ़ाएं भी गुप्तकाल की ही हैं।
प्रमुख शासक
- चन्द्रगुप्त प्रथम (240 से 280 ई.) – श्रीगुप्त को गुप्त राजवंश का संस्थापक माना जाता है।
- समुद्रगुप्त (335 से 375 ई.) – चन्द्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त जिसे भारत के नेपोलियन के नाम से भी जाना जाता है। इन्होंने ही अश्वमेध यज्ञ कराया।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय (375-414 ई.) – विक्रमादित्य के शासन काल को गुप्तकाल का स्वर्ण युग कहा गया है, इनके ही शासन में चीन का यात्री फाह्यान भारत आया।
- कुमारगुप्त (415-454 ई.) – कुमारगुप्त ने ही नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की, गुप्त काल के शासकों में से सबसे अधिक अभिलेख इनके ही मिलते हैं।
- स्कंदगुप्त (455-467 ई.) – इनके समय में हूणों का आक्रामण एक महत्वपूर्ण घटना थी। जूनागढ़ के अभिलेखों पर मलेच्छों पर स्कंदगुप्त की विजय का वर्णन देख जाता है।
गुप्तोत्तर काल
- छठी सदी के मध्य तक आते-आते, गुप्त शासन काल नष्ट होता चला गया, जिसके बाद क्षेत्रीयता की भावना ने जन्म लिया, इसके बाद भी भारत में क्षेत्रीय एकता की स्थापना नहीं हो सकी।
गुप्तोत्तर काल के साम्राज्य
- वर्धन साम्राज्य, के संस्थापक हर्षवर्धन (590-647 ई.) थे, इनके शासन के समय इन्होंने अपनी राजधानी कन्नौज को बनाया। इनके समय में ह्वेनसांग भारत आया।
- पाल वंश के शासकों ने 750 ई. तक भारत पर राज किया, इसके प्रमुख शासक थे- गोपाल (750-770 ईस्वी), धर्मपाल (770-810 ई.), देवपाल (810-850 ई.), महिपाल प्रथम (988 ई.)।
दक्षिण भारत के राजवंश
- पल्लव वंश , के संस्थापक सिंहविष्णु (575 से 600 ई.)
- राष्ट्रकूट, के संस्थापक दंतिदूर्ग (736-756 ई.)
- चोल साम्राज्य , (9वीं से 12वीं शताब्दी में)
मध्यकालीन भारत का इतिहास
- कई एतिहासिक स्त्रोत बताते हैं कि भारत का मध्यकालीन इतिहास किस प्रकार का रहा। भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना तुर्कों द्वारा की गई, तुर्कों ने भी भारत पर कई चरणों में आक्रमण किए, जिसमें पहला 1000 से 1027 ई. के मध्य में महमूद गजनवी ने किया।
- इन्होंने अपना शासन गुजरात में स्थापित किया। इनका उत्तर भारत पर प्रभाव कम था, इसके बाद गौर के शासक शहबुद्दीन मोहम्मद गौरी ने 1175 से 1206 ई. के दौरान ऐबक और बख्तियार खिलजी के साथ भारत पर आक्रमण किया। गौरी की मृत्यु के बाद तुर्क साम्राज्य का विभाजन हो गया, और यही आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के नाम से जाने गए।
गुलाम वंश (1206 से 1290 ई.)
- कुतुबउद्दीन ऐबक – इन्होंने जून 1206 में लाहौर को अपनी राजधानी बनाया, इन्होंने ही कुतुब मिनार की नींव रखी, इन्हें ‘लाल बख्श’ भी कहा जाता है। इनकी मृत्यु 1210 में हुई।
- शम्सुद्दीन इल्तुतमिश – ऐबक के पुत्र आरमशाह को राजगद्दी पर बिठाया गया, जिसके कारण अराजकता फैल गई, इसे इल्तुतमिश (ऐबक के दामाद) ने हरा कर गद्दी पर कब्जा किया, इसके बाद उन्होंने 1231-1232 ई. में कुतुबमिनार का निर्माण कार्य पूर्ण करवाया।
- रजिया सुल्तान – ये इल्तुतमिश की बेटी थीं, जो दिल्ली सल्तनत की पहली महिला मुस्लिम शासक थीं।
- बलबन (1266 ई.)- रजिया सुल्तान के बाद अन्य अयोग्य शासकों को गद्दी से हटाकर बलबन को शासक बनाया गया। 1287 में बलबन की मृत्यु के बाद जलालुद्दीन खिलजी का उदय हुआ।
खिलजी वंश (1290-1320 ई.)
- जलालुद्दीन खिलजी ने 1290 ई. में खिलजी राजवंश की स्थापना की, और किलोखरी को अपनी राजधानी बनाया।
- अलालुद्दीन खिलजी ने 1296 में दिल्ली की गद्दी संभाली, अपने राज में इन्होंने बाजार नियंत्रण प्रणाली को लागू किया, जमायतखाना मस्जिद और अलाई दरवाजा का निर्माण करवाया।
- अमीर खुसरो इनके ही दरबारी कवि रहे, इनकी मृत्यु 1316 ई. हुई।
- मुबारक शाह खिलजी ने खिलाफत उल-लह अल-इनाम की उपाधि ली, और खुद को खलीफा घोषित कर दिया।
तुगलक वंश (1320- 1413 ई.)
- गयासुद्दीन तुगलक – इन्होंने 1320 ई. में दिल्ली की गद्दी हासिल की, दिल्ली में तुगलकाबाद नाम का नगर स्थापित किया। 1325 ई. में इनकी मृत्यु हुई।
- मुहम्मद बिन तुगलक – 1327 ई. में इन्होंने दिल्ली की कमान संभाली, और अपनी राजधानी को दौलताबाद रखा। कृषि के विकास के लिए दीवान-ए-कोही नाम का विभाग बनाया, 1333 ई. इनके शासन काल में इब्नबतूता मोरक्को से भारत आया। बिन तुगलक की मृत्यु 1351 में हुई।
- फिरोजशाह तुगलक – 1351 में दिल्ली का सुल्तान बना, और 24 करो की संख्या को 4 कर दिया। इसने दिल्ली में फिरोजबाद और अन्य स्थानों पर हिसार, जौनपुर जैसे नगरों को स्थापना की। कोटला फिरोजशाह दुर्ग का निर्माण दिल्ली में किया।
लोदी वंश (1451 से 1526 ई.)
- बहलोल लोदी – (1451 से 1489 ई.)
- सिकंदर लोदी – (1489 से 1517 ई.)
- इब्राहीम लोदी – (1517 से 1526 ई.)
भारत में धार्मिक आंदोलन
- सूफी आंदोलन – इसमें एकेश्वरवाद पर बल दिया गया, दिल्ली के शेख निजामुद्दीन औलिया, और नसीरुद्दीन आदि सूफी के ही संत थे।
- भक्ति आंदोलन – भक्ति आंदोलन का विकास 12 वैष्णव संतों और 63 शैव संतों ने मिलकर किया, यह आंदोलन 7वीं और 12वीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत में किया गया।
विजयनगर और बहमनी साम्राज्य
- दिल्ली सल्तनत का विरोध दक्षिण भारत में किया गया, क्योंकि दक्षिण भारत को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया जा रहा था। इसके चलते यहाँ विजयनगर और बहमनी साम्राज्य का उदय हुआ।
- विजयनगर साम्राज्य को 1336 में हरिहर और बुक्का ने स्थापित किया। इसकी राजधानी हम्पी थी। हरिहर और बुक्का ने जिस वंश का निर्माण किया उसे उनके पिता के नाम पर संगम वंश कहा गया।
- बहमनी साम्राज्य तुगलक साम्राज्य के हसन गूंग ने बहमनी साम्राज्य बनाया। यहाँ के शासक हुमायूं को दक्कन का नीरो कहा जाता था ।
- मेवाड़- विजय स्तम्भ का निर्माण राणा कुम्भ ने चितौड़ में 1448 ई. में कराया, खनवा का युद्ध 1527 ई. में राणा साग और बाबर के बीच हुए, इसमें बाबर विजयी हुआ। हल्दीघाटी का युद्ध राणा प्रताप और अकबर के बीच 1576 ई. में हुआ, अकबर विजयी हुआ।
मुग़ल साम्राज्य
- मुग़लों के आगमन से भारत के मध्यकाल में नए बदलाव आए। मुग़ल वंश की स्थापना बाबर (1526-1530 ई.) ने की। पानीपत के पहले युद्ध (1526 ई.) में तुगलूमा युद्ध नीति का प्रयोग सबसे पहले बाबर ने किया।
- हुमायूँ (1530-40 ई. और 1555-1556 ई.) ने दिल्ली की सत्ता संभाली, और दिल्ली में दीनपनाह की स्थापना की, शेर खां और हुमायूं के बीच चौसा का युद्ध 1539 ई. में हुआ।
- 1540 के कन्नौज युद्ध में हुमायूँ को हराकर शेर खां ने दिल्ली और आगरा पर कब्जा जमा लिया, इसके बाद 1555 ई. में सिकंदर सूरी को हराकर दिल्ली पर हुमायूँ ने फिर कब्जा कर लिया, दीनपनाह की सीढ़ियों से गिरकर इनकी मृत्यु हुई।
- शेरशाह सूरी (1540-1545 ई.) ने सुर साम्राज्य की स्थापना की, डाक प्रथा का शुरुआत की, पुराने किले का निर्माण करवाया, मालिक मोहम्मद जायसी ने पद्मावत की रचना इनके शासन काल में की।
- अकबर (1556-1605 ई.) ने पानीपत के दूसरे युद्ध में हेमू को हराया,1562 में इन्होंने दास प्रथा का अंत किया, और कई बड़े निर्णय लिए। हल्दी घाटी के युद्ध में अकबर ने महाराणा प्रताप को हराया।
- जहांगीर (1605 से 1627 ई.) के बचपन का नाम सलीम था, जहांगीर की आत्म कथा का नाम है तुजुक-ए-जहांगीर, जिसे फ़ारसी भाषा में लिखा गया है। इसके समय को चित्रकला के लिए स्वर्णकाल कहा गया है।
- शहांजहाँ (1627 से 1658 ई.) ने ताजमहल का निर्माण कराया, इसके अलावा दिल्ली में लाल किला, दीवाने ए आम और खास का निर्माण भी कराया। 1658 ई. में औरंगजेब ने इन्हें बंदी बनाया इसके बाद, 1666 ई. में इनकी मृत्यु हुई।
- औरंगजेब को जिंदा पीर के नाम से भी जाना जाता था, इन्होंने बीबी के मकबरे का निर्माण किया, इन्होंने ही सिखों के 9वें गुरु तेगबहादुर की हत्या दिल्ली में कारवाई, इनकी मृत्यु 1707 ई. में हुई।
- बहादुरशाह प्रथम (1707-1712 ई.) को खफी खां ने शाहे बेखबर कहा, मुग़लों के अंतिम शासक बहादुरशाह जफ़र थे।
मराठा साम्राज्य
- शिवाजी ने इस साम्राज्य की स्थापना की, शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि हासिल की और इनकी मृत्यु 1680 ई. में हुई।
आधुनिक भारत का इतिहास
- भारत में वास्को डी गामा 1498 ई. पुर्तगाल से आया, जिसने भारत के पश्चिमी तट के कालीकट से भारत में कदम रखा।
- 1600 ई. एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को अधिकार प्रदान किया और 1608 में पहली फैक्ट्री सूरत में डाली गई, फ़्रांसीसियों ने पहली फैक्ट्री सूरत में 1668 में डाली।
- बंगाल – औरंगजेब की मृत्यु के बाद बंगाल स्वतंत्र हुआ और राजधानी मुर्शिदाबाद बनाई। 1764 में बक्सर का युद्ध हुआ, और अंग्रेजों के विरुद्ध गठबंधन की हार हुई।
- मैसूर – 1782 ई. के बाद टीपू सुल्तान ने स्वतंत्रता का प्रयास किया और एक अलग सेना बनाई, अंग्रेजों, निजाम और मराठों ने मिलकर टीपू सुल्तान को हरा दिया, टीपू की मृत्यु के बाद मैसूर पर लॉर्ड वेलजली का कब्जा हुआ।
बंगाल के गवर्नर
- रॉबर्ट क्लाइव (1757-60ई, 1765-67 ई.)
- वारेन हेस्टिंगस (1774-85 ई.)
- लॉर्ड कॉर्नवलिस (1786-93 ई.)
- लॉर्ड वेलजली (1798-1805 ई.)
- लॉर्ड मिंटों (1807-13 ई.)
- लॉर्ड हेस्टिंग (1813-23 ई.)
- लॉर्ड एमहसर्ट (1823-28 ई.)
भारत के गवर्नर
- लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828 से 1835 ई.)
- सर चार्ल्स मेटकॉफ (1835 से 1836 ई.)
- लॉर्ड ऑकलैंड (1836 से 1842 ई.)
- लॉर्ड एलनबरो (1842 से 1844 ई.)
- लॉर्ड हार्डिंग (1844 से 1848 ई.)
- लॉर्ड डलहौजी (1848 से 1856 ई.)
सन् 57 का विद्रोह
- यह विद्रोह भारत की स्वतंत्रता का पहला विद्रोह था, जिसे मंगल पांडे ने बैरकपुर में शुरू किया। लेकिन यह विद्रोह असफल रहा, इसका कारण था, दक्षिण की ओर न फैल पाना, और कई राज्यों के राजाओं ने ही इस आंदोलन को रोकने में अंग्रेजों की मदद की।
- सामाजिक सुधार और आंदोलन – इस दौरान देश में ब्रह्म, आर्य और प्रार्थना समाजों की स्थापना की, इसके अलावा 1897 ई. में स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, और 1894 में वेदान्त समाज का गठन न्यूयॉर्क में किया।
- राष्ट्रीय आंदोलन – भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना सन् 1885 में ए-ओ ह्यूम द्वारा की गई, इसका पहला अधिवेशन मुंबई में बुलाया गया।
- सन् 1905 में लॉर्ड कर्जन ने राष्ट्रीय भावना को कमजोर करने के उद्देश्य से बंगाल के विभाजन की घोषणा की, टाउन हाल में स्वदेशी आंदोलन के चलते रबीन्द्र नाथ टैगोर ने अमार सोनार बांग्ला की रचना की, जो बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान है। 16 अक्टूबर 1905 को बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन और तेज हुआ।
- महात्मा गांधी सन् 1915 में भारत लौटे, गुजरात के चंपारण में साबरमती आश्रम की स्थापना की, और 1917 में चंपारण में नील की खेती के लिए अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन किया।
- रोल्ट एक्ट – ब्रिटिश सरकार ने देश में उठ रही क्रांति की लहर को शांत करने के लिए एक कमिटी नियुक्त की जिसे ‘काला कानून’ यानी रोल्ट एक्ट के नाम से जाना जाता है, 1919 में हुआ।
- 1920 में खिलाफत आंदोलन हुआ जिसकी अध्यक्षता मोहम्मद अली और शौकत अली ने की।
- 1920 में ही असहयोग आंदोलन की शुरुआत हुई, इसकी अध्यक्षता गांधी ने की, इसमें शिक्षण संस्थाओं और न्यायालयों का विरोध किया गया। गांधी ने इस आंदोलन को चोरा चोरी में हुई घटना के चलते, 1922 में वापस ले लिया।
- साइमन कमीशन का विरोध भारत में बड़े स्तर पर हुआ, इस आयोग से 8 सदस्यों में किसी भी भारतीय को शामिल नहीं किया गया था, यही विरोध का कारण बना, लाहौर में इसी आंदोलन के चलते लाला लाजपत राय की मृत्यु हुई।
- पूर्ण स्वराज की मांग (1929 में) काँग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन लाहौर में पूर्ण स्वराज की मांग उठी।
- सविनय अवज्ञा आंदोलन- इरविन ने 1930 में गांधी के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करने के कारण इस आंदोलन की शुरुआत हुई।
- 12 मार्च 1930 में दांडी मार्च किया और 6 अप्रैल को नामक कानून को तोड़ा।
- पहला गोलमेज सम्मेलन 1930 में लंदन में आयोजित हुआ। इस आंदोलन का गांधी ने बहिष्कार किया लेकिन अंबेडकर ने तीनों सम्मेलनों में हिस्सा लिया।
- 5 मार्च 1931 को गांधी और इरविन में समझौता हुआ, दूसरा गोलमेज 1931 में हुआ, इसमें गांधी ने भी हिस्सा लिया। तीसरे गोलमेज (1932) में काँग्रेस ने हिस्सा नहीं लिया।
- भारत छोड़ो आंदोलन – 1942 में बंबई में काँग्रेस की बैठक से यह प्रस्ताव पास हुआ, और गांधी ने करो या मरो का नारा दिया, इसके बाद नेताओं को गिरफ्तार किया गया। मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन का विरोध किया।
- इस समय में द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को मान्यता दी गई। केबिनेट मिशन (1946) देशी रियासतों की स्वतंत्रता आदि को इस मिशन में स्वीकारा गया।
- भारत के आखिरी ब्रिटिश वायसराय का 1947 में भारत आगमन और भारत के स्वतंत्रता विधेयक पर हस्ताक्षर, जिसे 18 जुलाई 1947 को ब्रिटिश की संसद में स्वीकृति मिली।
Leave a Reply Cancel reply
Recent post, डेली करेंट अफेयर्स 2024 (daily current affairs in hindi), यूपी बोर्ड कक्षा 12वीं सिलेबस 2024 (up board class 12 syllabus 2024 in hindi medium), यूपी बोर्ड कक्षा 10 सिलेबस 2025 (up board class 10 syllabus 2024-25 pdf download), haryana d.el.ed result 2024 – हरियाणा डीएलएड मेरिट लिस्ट यहाँ से देखें, haryana d.el.ed application form 2024 – आवेदन शुरू, हिंदी व्याकरण (hindi grammar) | hindi vyakaran.
Join Whatsapp Channel
Subscribe YouTube
Join Facebook Page
Follow Instagram
School Board
एनसीईआरटी पुस्तकें
सीबीएसई बोर्ड
राजस्थान बोर्ड
छत्तीसगढ़ बोर्ड
उत्तराखंड बोर्ड
आईटीआई एडमिशन
पॉलिटेक्निक एडमिशन
बीएड एडमिशन
डीएलएड एडमिशन
CUET Amission
IGNOU Admission
डेली करेंट अफेयर्स
सामान्य ज्ञान प्रश्न उत्तर
हिंदी साहित्य
© Company. All rights reserved
About Us | Contact Us | Terms of Use | Privacy Policy | Disclaimer
आधुनिक भारत का इतिहास Modern History of India in Hindi
आज के इस लेख में हम आपको आधुनिक भारत का इतिहास (Modern History of India in Hindi) बताएँगे। भारतीय इतिहास काफी ज्यादा समृद्ध है और अन्य देशों के मुकाबले भारतीय इतिहास काफी ज्यादा विस्तृत भी है। इस लेख को विद्यार्थी एक निबंध के रूप में भी परीक्षा में लिख सकते हैं।
भारत के इतिहास में बहुत सारे घटनाक्रम मौजूद हैं जो कि यह दर्शाते हैं कि भारतीय इतिहास कितना अधिक महत्वपूर्ण है। यह इतिहास काफी ज्यादा विस्तृत है इस कारण इसे प्रमुख तौर पर तीन खंडों में बांटा गया है। भारत के आधुनिक इतिहास को शुरू करने से पहले हम आपको प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत के विषय में लागु रूप से पहले जान लें।
Table of Content
प्राचीन भारत (Ancient India)
प्राचीन भारत, भारतीय इतिहास के सभी खंडों में काफी ज्यादा विस्तृत है। भारतीय प्राचीन इतिहास के सभी तथ्य अब तक सामने नहीं आए हैं। भारतीय प्राचीन इतिहास का प्रारंभ पाषाण युग से लेकर, गुप्त साम्राज्य तक है।
पाषाण युग, सिंधु घाटी सभ्यता , वेदिक भारत, महा जनपद, मौर्य काल और गुप्त काल, भारतीय प्राचीन इतिहास का ही हिस्सा हैं। यह खण्ड अन्य सभी खंडों का आधार माना जाता है।
मध्यकालीन भारत (Medieval India)
पढ़ें : मध्यकालीन भारत का इतिहास (पूर्ण)
मध्यकालीन भारत भारतीय इतिहास का सबसे अधिक महत्वपूर्ण खंड है। मध्यकालीन भारतीय इतिहास पाल साम्राज्य से शुरू होकर मुगलों के अंत तक खत्म होता है। यह खण्ड भारतीय इतिहास के महत्पूर्ण पन्नो को समेटे हुए है।
पाल साम्राज्य और राष्ट्र कूट साम्राज्य इसके प्रमुख अंग है। भारत में इस्लाम का आगमन इसी काल के दौरान हुआ था। मुगलों की शुरुआत से लेकर अंत तक इसी काल में हुई थी।
भारत ने इस खण्ड के दौरान कई साम्राज्यों के शासन काल को देखा और उनके द्वारा बनवाए गए किले और स्मारक आज भी भारतीय धरती पर मौजूद हैं और भारतीय इतिहास की समृद्धि को दर्शा रहे हैं।
आधुनिक भारत इतिहास (Modern History of India)
आधुनिक भारतीय इतिहास मुगलों के समापन से लेकर इंदिरा गांधी के शासन काल तक को माना जा सकता है। कई विद्वानों का यह भी मानना है कि आधुनिक भारतीय इतिहास भारत की आजादी पर खत्म हो जाता है।
आधुनिक भारतीय इतिहास के दौरान ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत पर कब्जा किया था और इसी दौरान आजादी की लड़ाइयां लड़ी गई थीं। यह खंड भारत के अधीन होने से लेकर भारतीय आजादी तक है।
इसी खण्ड के दौरान भारत पर सबसे अधिक समय तक राज करने वाला साम्राज्य, मुगल साम्राज्य अपने आस्तित्व से बाहर हुआ था। हालांकि सत्ता से तो वह काफी पहले ही निकल चुका था।
भारतीय आधुनिक इतिहास की प्रमुख घटनाएं (Main Incidents Of Indian Modern History)
ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना (arrival of east india company) .
ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना को भारतीय आधुनिक इतिहास का प्रथम चरण कहा जा सकता है। ईस्ट इंडिया कम्पनी की भारत में स्थापना 31 दिसंबर 1600 में हुई थी।
पहले इसे जॉन कम्पनी के नाम से जाना जाता था लेकिन बाद में यह ईस्ट इंडिया कंपनी कहलाई थी। जॉन वाट्स इस कम्पनी के संस्थापक थे और उन्होने ही इस कंपनी के लिए व्यापार करने की इजाजत, ब्रिटेन की महारानी से ली थी।
ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना द्वारा ही आधुनिक भारतीय इतिहास की नींव रखी गई। आधुनिक भारतीय इतिहास में घटने वाले अन्य सभी घटनाक्रम ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापन पर ही आधारित हैं।
मुगलों का अन्त (End of Mughals)
भारतीय जमीन पर मुगल साम्राज्य सबसे अधिक समय तक राज करने वाले साम्राज्यों में से एक है। लेकिन हर साम्राज्य की तरह ही मुगलों का पतन भी हुआ। यह भारतीय आधुनिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है।
मुगलों के पतन का प्रमुख प्रमुख कारण उनमे उत्तरदायिता के अभाव था। मुगल शासकों में अकबर , जहांगीर और शाहजहां के इतर कोई भी शासक जन मानस तक पहुंचने में नाकामयाब रहा।
मुगलों ने भारत के मध्यकालीन इतिहास खण्ड में सत्ता खो दी थी, लेकिन आखिरी मुगल बादशाह रहे बहादुर शाह जफर की मृत्यु भारतीय आधुनिक इतिहास खण्ड के दौरान हुई। विशाल मुगल साम्राज्य के अंतिम बादशाह का देहांत बर्मा की जेलों में हुआ जहां उन्हे अंग्रेजो द्वारा कैद किया गया था, और उनके उत्तराधिकारीयों को उन्ही की नजरों के सामने मौत के घाट उतार दिया गया था।
आजादी की पहली लड़ाई (First war of independence)
आजादी की पहली लड़ाई को “1857 की क्रांति” के नाम से भी जाना जाता है। यह लड़ाई अलग अलग सैन्य दलों और किसान आंदोलन के मोर्चों को मिलाकर बनाई गई थी।
गौरतलब है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारत को अधीन करने के उपरान्त सबसे अधिक असंतोष किसानों और सैन्य दलों में ही था। किसानों और सैन्य दलों ने ही इस आंदोलन को खड़ा किया था। हालांकि बाद में कई सारे क्रांतिकारी इस आंदोलन में जुड़ते चले गए।
1857 की क्रांति की नींव 1853 में रखी गई थी। उस दौरान यह अफवाह फैला दी गई थी राइफल के कारतूस पर सुअर और गायों की चर्बी लगाई जाती है। गौरतलब है कि राइफल और कारतुस को चलाने से पहले उसे मूह से खोलना पड़ता था, जिस कारण यह हिंदू और मुस्लिम दोनों ही धर्म के भारतीय सैनिकों को बुरा लगा।
1857 की क्रांति का यह सैन्य कारण था। वहीं दूसरा कारण जो इस क्रांति से जुड़ा है वह यह कि किसानों पर ब्रिटिश सरकार के लगानों का बोझ काफी ज्यादा बढ़ गया था और वे काफी समय से इस चिंगारी को दबा रहे थे।
इस क्रांति के प्रमुख चेहरे, मंगल पांडे , नाना साहेब, बेगम हजरत महल , तात्या टोपे , वीर कुंवर सिंह, अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर, रानी लक्ष्मी बाई , लियाकत अली, गजाधर सिंह और खान बहादुर जैसे महत्वपूर्ण और वीर नेता थे।
यह क्रांति शुरुआती दिनों में तो काफी ज्यादा तेजी से चली और ऐसा लगा कि यह ब्रिटिश सत्ता को पूर्ण रूप से खदेड़ के रख देगी, लेकिन यह क्रांति ऐसा कर पाने में असफल हुई और इस क्रांति को ब्रिटिश सत्ता ने निर्ममता से खदेड़ दिया।
भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस का निर्माण (Formation of Indian National Congress)
भारतीय कॉंग्रेस का गठन भारतीय आधुनिक इतिहास के प्रमुख चरणों में से एक है। भारतीय कॉंग्रेस ने आगे जाकर भारत की आजादी में एक महत्वपूर्ण किरदार निभाया, हालांकि यह भारतीय कॉंग्रेस का शुरुआती मकसद नहीं था।
भारतीय कॉंग्रेस का गठन ए ओ ह्यूम द्वारा किया गया था। उन्होने भारतीय कॉंग्रेस का निर्माण, ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर भारतीय लोगों के लिए बेहतर रणनीति बनाने के लिए किया था।
एओ ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को की थी। मूल रूप से कॉंग्रेस का निर्माण देश के विद्वान लोगों को एक मंच पर लाने के लिए किया गया था।
कॉंग्रेस के शुरुआती दौर में कॉंग्रेस के पास केवल 17 सदस्य थे। कॉंग्रेस का पहला अधिवेशन मुंबई में हुआ था जिसकी अध्यक्षता व्योमेश चंद्र बनर्जी द्वारा की गई थी।
सूरत अधिवेशन (Surat Split)
यह अधिवेशन कांग्रेस के दृष्टिकोण से काफी ज्यादा महत्वपूर्ण अधिवेशन था। यह घटना कॉंग्रेस के इतिहास की सबसे अधिक दुखद घटनाओं में से एक मानी जाती है। कॉंग्रेस के ही सदस्य रहे एनी बेसेंट ने कहा था कि यह घटना कॉंग्रेस की सबसे अधिक अप्रिय घटनाओं में से एक है।
गौरतलब है कि 26 सितंबर 1907 को यह अधिवेशन ताप्ती नदी के किनारे पर रखा गया था। हर अधिवेशन की तरह ही इस अधिवेशन के लिए भी अध्यक्ष का चुनाव कराया गया, जहां से इस घटना क्रम की शुरुआत हुई। गौरतलब है कि स्वराज्य को पाने के लिए कराए जा रहे इस अधिवेशन के कारण कॉंग्रेस दो धड़ों में बंट गई।
कॉंग्रेस में निर्मित ये दो दल, गरम दल और नरम दल के नाम से काफी ज्यादा मशहूर हुए। इन दो दलों की सूरत के अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुनाव के दौरान मार पीट तक हो गई।
दरअसल गरम दल के उग्रवादियों ने सूरत अधिवेशन का अध्यक्ष लोकमान्य तिलक को बनाने की मांग की थी लेकिन इसके उलट उदारवादी दल ने डॉक्टर राम बिहारी घोष ने इस अधिवेशन का अध्यक्ष बना दिया।
बाद में यह उग्रवादियों और उदारवादीयों की तर्ज पर दो दल हो गए जिन्हे गरम दल एवं नरम दल का नाम दिया गया। गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक, लाला लाजपत राय और बिपिन चंद्र पाल थे और नरम दल के नेता गोपाल कृष्ण गोखले थे। बाद में 1916 के लखनऊ के अधिवेशन में इन दोनों दलों का विलय हुआ।
गांधी का आगमन (Arrival Of Mahatma Gandhi)
महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति में आगमन भारतीय आधुनिक इतिहास के प्रमुख चरणों में से एक है। महात्मा गांधी पहले इंग्लैंड मे थे और उसके बाद वे दक्षिण अफ्रीका गए।
दक्षिण अफ्रीका में उन्होने काफी ज्यादा संघर्ष किया और उस संघर्ष के उपरान्त वे भारत में आए। जब गांधी भारत लौटकर आये तब उनकी उम्र 46 वर्ष थी और साल 1915 था। उस समय महात्मा गांधी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले थे।
महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति का प्रमुख नेता बनने से पहले एक वर्ष तक भारत का अध्यन किया। महात्मा गांधी जी ने इस दौरान किसी भी प्रकार का आंदोलन नहीं किया न ही वे किसी मंच पर भाषण देने के लिए चढ़े।
लेकिन 1915 के बाद 1916 में गांधी जी ने साबरमती आश्रम को स्थापित किया और पूरे भारत में भ्रमण करने लगे। उन्होने पहली बार मदन मोहन मालवीय द्वारा स्थापित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के मंच से भाषण दिया जो कि पूरे देश में आग की तरह फैल गया।
महात्मा गांधी का एकमात्र लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य था, जो कि आगे चलकर कॉंग्रेस पार्टी का भी लक्ष्य बना और महात्मा गांधी कॉंग्रेस के प्रतीक बन गए।
मुस्लिम लीग का गठन (Formation of Muslim league)
मुस्लिम लीग की स्थापना 30 दिसंबर, 1906 को ढाका में की गई थी। गौरतलब है की ढाका भी उस समय भारत का ही हिस्सा था। मुस्लिम लीग का शुरुआती नाम आल इंडिया मुस्लिम लीग था जो कि बाद में मुस्लिम लीग हो गया था। मुस्लिम लीग के प्रमुख नेताओं में मोहम्मद अली जिन्ना, ख्वाजा सलीमुल्लाह और आगा खाँ शामिल हैं।
खिलाफत आंदोलन (Khilafat Movement)
पढ़ें : खिलाफत आंदोलन का इतिहास
यह घटना आधुनिक भारतीय इतिहास से काफी ज्यादा जुड़ी हुई नहीं है लेकिन इस घटना का महत्व है क्यूंकि यह एक आंदोलन था जिसका समर्थन महात्मा गांधी जी द्वारा किया जा रहा था।
यह आंदोलन तुर्की के खलीफा को उनकी पदवी दुबारा दिलाने के लिए किया गया था और यह आंदोलन भारत की आजादी के लिए काफी सहयोगी भी साबित हुआ।
महात्मा गांधी का इस आंदोलन को समर्थन देने के पीछे यह तथ्य था कि वे इस आंदोलन में मुस्लिमों की मदद करके भारतीय मुस्लिमों द्वारा आजादी की लड़ाई में सहयोग ले लेंगे।
यह एक प्रकार का धार्मिक राजनीतिक आंदोलन था जिसने गांधी जी के पूर्ण स्वराज्य के सपने को सीधे तौर पर नहीं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से काफी सहायता पहुंचाई थी।
असहयोग आंदोलन (Non co-operation Movement)
पढ़ें: असहयोग आंदोलन पर निबंध
असहयोग आंदोलन गांधी जी द्वारा चलाया गया पहला व्यापक आंदोलन था। यह काफी ज्यादा महत्वपूर्ण था और भारतीय आधुनिक इतिहास में इसका महत्व अत्यधिक है। गौरतलब है कि महात्मा गांधी के द्वारा चलाए गए इस आंदोलन के कारण ही आजादी की नींव रखी गई थी।
इस आंदोलन के जन्म का प्रमुख कारण जलियांवाला बाग हत्याकांड था। जलियांवाला बाग हत्याकांड को इस आंदोलन का मुख्य प्रतीक बनाया गया और लोगों के आक्रोश को इस आंदोलन से जोड़ दिया गया। अन्य कारण जो इस आंदोलन के पीछे था वह, रॉलेट एक्ट था।
गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की मुख्य कार्यप्रणाली असहयोग थी। असहयोग का सीधा अर्थ था ब्रिटिश सरकार की बिल्कुल भी सहायता नहीं करना।
यह आंदोलन गांधी जी के कॉंग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद चलाया गया और अध्यक्ष बनने के बाद, 1920 में उन्होंने पूरे देश को इस आंदोलन से जुड़ने के लिए कहा।
गौरतलब है कि गांधी जी के इस निवेदन पर कई लोग इस आंदोलन से जुड़े। इस आंदोलन के दौरान 396 हड़तालें की गईं जिनमें 30 मार्च 1919 और 6 अप्रैल 1919 की देश व्यापी हड़तालें प्रमुख हैं।
इस आंदोलन के दौरान होने वाली हड़तालों के दौरान 6 लाख श्रमिकों ने भाग लिया। इस दौरान लगभग 70 लाख से अधिक कार्य दिवसों का भी नुकसान हुआ। यह 1857 की क्रांति के बाद का सबसे अधिक विशाल आंदोलन था।
सविनय अवज्ञा आंदोलन (Civil Disobedience Movement)
सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधी जी द्वारा किए गए प्रमुख आंदोलनों में से एक है। गांधी जी ने यह आंदोलन 12 मार्च 1930 को किया था। गांधी भारतीय आधुनिक इतिहास के सर्वाधिक महत्पूर्ण व्यक्ति थे और उनके द्वारा किए गए आंदोलन भी काफी ज्यादा महत्वपूर्ण थे।
गांधी जी द्वारा किया गया आंदोलन अंग्रेजों के भारत छोड़ने की घोषणा के बाद किया गया था। गांधी जी को ऐसा लगता था कि अंग्रेज केवल कह रहे हैं अपितु वे भारत को किसी भी सूरत में नहीं छोड़ेंगे।
गांधी जी द्वारा चलाया गया यह आंदोलन इसी घोषणा को सत्य करने के लिए अंग्रेजों पर दबाव डाल रहा था, हालांकि बाद में इस आंदोलन को इर्विन समझौते के कारण वापस ले लिया गया।
भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement)
भारत छोड़ो आंदोलन गांधी जी द्वारा किया गया आखिरी आंदोलन था। यह अंग्रेजों के खिलाफ भी किया गया आखिरी आंदोलन था क्यूंकि इस आंदोलन के उपरांत अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया था।
इस आंदोलन का एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्त करना था, हालांकि ऐसा आंदोलन के दौरान तो नहीं हो पाया क्यूंकि अंग्रेजों ने यह आंदोलन दबा दिया था लेकिन इस आंदोलन के खत्म होने के बाद अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया था। इस आंदोलन का प्रमुख नारा “भारत छोड़ो” 1942 के कॉंग्रेस के बम्बई अधिवेशन के दौरान दिया गया था।
भारत का विभाजन (Partition of India)
भारत के विभाजन को अंग्रेजों की देन कहा जा सकता है। अंग्रेजों द्वारा ही “फुट डालो राज करो” की नीति अपनाई जाती थी और उन्होने भारत को छोड़ते समय भी यही किया।
उन्होने भारत को छोड़ दिया लेकिन भारत के टुकड़े भी कर दिए। महात्मा गांधी भारत के टुकड़े नहीं चाहते थे लेकिन उस समय तक भारत परिस्थितियों की समस्या में इस कदर फँस चुका था कि कुछ किया नहीं जा सकता था।
भारत के विभाजन के समर्थन वाले प्रमुख दलों में मुस्लिम लीग भी थी, जिसका नेतृत्व मोहम्मद अली जिन्ना कर रहे थे।
भारतीय संविधान निर्माण (Indian Constitution)
भारतीय संविधान निर्माण भारतीय आधुनिक इतिहास की प्रमुख घटनाओं में से एक है। भारतीय संविधान का निर्माण भारत की सुचारू रूप से चलाने के लिए किया गया था। भारतीय संविधान को 2 साल, 11 महीने और 18 दिनों में निर्मित किया गया था। 26 नवंबर को भारतीय संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत की आजादी (Independence of India)
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों की हालत काफी ज्यादा खराब हो चुकी थी और कई प्रकार के आंदोलनों से परेशान होकर भी उन्होने 15 अगस्त 1947 को अधिकारिक तौर पर भारत को छोड़ दिया।
आधुनिक भारत का इतिहास बहुत ही फैला हुआ है। इस लेख में हमने इसके विषय में आसान शब्दों में समझाने की कोशिश की है। आशा करते हैं आपको इस लेख से मदद मिली होगी।
13 thoughts on “आधुनिक भारत का इतिहास Modern History of India in Hindi”
It’s a very useful for me…. Thank you so much
It’s a very useful for me …. Thank you so much
very useful
Your gk content is very important and helpful for preparing students. common general knowledge questions and answers for all competitive, Exam
Very helpfull for me. Thankyou
Very good Thank you
very helpful…….THANK YOU
it’s so clear & easy way to understand….very helpful …thnx
Very easy to understand.Thanks a lot
Very helpful for me.. Thank you
Leave a Comment Cancel reply
This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed .
Education Lib | Home
12th Class Notes
1st grade (rpsc), b.ed lesson diary, geography notes, history notes, politics notes, printed notes, rajasthan geography notes, rajasthan gk, rajasthan history notes, ugc net/jrf/set, uncategorized, indian history notes in hindi | पूर्ण भारतीय इतिहास के नोट्स.
This indin history notes PDF. This Notes पूर्ण भारतीय इतिहास के नोट्स || प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक भारतीय इतिहास is important for various exams like UGC NET History , UPSC, IAS, RAS, RPSC 1st grade , MPPSC, BPSC, SSC CGL, CHSL, CPO, IBPS PO, SBI PO, Railway, RRB NTPC, ASM, Group D, State PSC, Sub inspector, Patwari exam, LDC Exam, Revenue office Exam.
- 1 History notes for upsc in hindi
- 2 indian history notes in hindi pdf
- 3 ● प्राचीन भारत का इतिहास – (Part 1)
- 4 ● मध्यकालीन भारतीय इतिहास – (Part 2)
- 5 ● आधुनिक भारतीय इतिहास – (Part 3)
History notes for upsc in hindi
NCERT books are among the most significant historical sources. In order to get ready for the IAS test, candidates should read history from NCERT textbooks for UPSC. Making notes is a productive technique to arrange your readings for later review.
Despite the fact that taking notes is advised, UPSC candidates frequently struggle to choose a topic to concentrate on or lack the time or resources necessary to take useful notes. In light of this, Education LiB has put together a list of NCERT notes for the UPSC. For the convenience of IAS candidates, this page has compiled the majority of the significant NCERT notes on ancient Indian history for the UPSC.
indian history notes in hindi pdf
From the beginning of the Middle Ages to the ancient Indian historical period, the majority of the significant historical topics are covered in these IAS History study materials. The whole UPSC syllabus for Ancient Indian History should be covered by candidates using these notes in addition to NCERT texts.
A thorough grasp of the Indian historical chronology is necessary while studying the country’s ancient past. Based on this, applicants ought to broaden their understanding of history to include subjects other than political history, such as administrative history, economic history, and the cultural effects of historical events.
● प्राचीन भारत का इतिहास – (Part 1)
- सिंधु घाटी सभ्यता
- वैदिक सभ्यता (1500BC – 600BC)
- महाजनपद काल
- धार्मिक क्रांति
- फारस आक्रमण
- मौर्य वंश (298BC – 185BC)
- मौर्योत्तर काल (185BC – 319AD)
- गुप्तकाल (319AD – 550AD)
- हर्षवर्धन (606AD – 647AD)
- चालुक्य पल्लव संघर्ष
Medium – Hindi
PDF File Size – 35 MB
Total Page – 138
Download pdf
● मध्यकालीन भारतीय इतिहास – (Part 2)
- इस्लाम का उदय
- अरब आक्रमण, तुर्क आक्रमण
- सल्तनत काल (1206 – 1526)
- मुगल काल (1526 – 1707)
- विजयनगर साम्राज्य (1336)
- बहमनी साम्राज्य (1347)
- सूफीवाद, भक्ति आंदोलन।
PDF File Size – 28 MB
Total Page – 106
● आधुनिक भारतीय इतिहास – (Part 3)
- भारत छोड़ो आंदोलन
- संविधान सभा का चुनाव
- क्रांतिकारी आंदोलन
- भारत में साम्यवादी आंदोलन
- आजाद हिंद फौज
- भारत में शिक्षा का विकास
- भारत में संवैधानिक विकास
- भारत में किसान आंदोलन
- भारत में साम्प्रदायिकता
PDF File Size – 8 MB
Total Page – 56
अन्य इतिहास के नोट्स प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक करें।
Q. How to make notes in history?
Answer:- How should I take notes for India’s Ancient History? Read through the pertinent NCERT books and reference resources in order to prepare for Ancient History on the UPSC by taking detailed notes. Underline or highlight important passages, dates, and people as you read.
Q. How many parts are there in history?
Answer:- Indian History Timeline in Hindi is broadly divided into three categories – Ancient History, Medieval History and Modern History.
Q. What is history? How many parts is history divided into?
Answer:- Based on the available data, historians have separated history into three primary categories. These are referred to as the historical, protohistoric, and prehistoric periods.
Q. What is the full meaning of history?
Answer:- Events are mentioned throughout history. This implies that it ought to include a description of everything that happened from the beginning of time to the same moment it ended. However, this does not imply that it ought to consider every disruption that has occurred in history or around the world. History just documents human life’s happenings.
Q. When did the history of India begin?
Answer:- Prehistoric period (up to 3300 BC) The earliest evidence of human life in India dates back to 100,000 to 80,000 years ago. The chronology of the paintings on the rocks of the Stone Age (Bhimbetka, Madhya Pradesh) is considered to be 40,000 BC to 9000 BC. The first permanent settlements took shape about 9000 years ago.
Q. Es Post ko google me khojne ke liye kounse keywords ka paryog kare?
Answer:- history notes in hindi, indian history notes in hindi pdf, Ancient History Topicwise Notes, Morden history notes, Medieval History notes, history notes pdf download, history notes for upsc, Indian History Notes in Hindi etc.
IMAGES
VIDEO
COMMENTS
Indian History in Hindi के इस पृष्ठ में आप पायेंगे भारत का इतिहास (Indian History in Hindi) नोट्स, जो कि हिन्दी में हैं जिन्हें हमने 4 भागों में बांटा है, प्राचीन इतिहास, मध्यकालीन इतिहास, आधुनिक भारत और स्वतन्त्रता आंदोलन |.
भारत का इतिहास कई सहस्र वर्ष पुराना माना जाता है। [1] 65,000 साल पहले, पहले आधुनिक मनुष्य, या होमो सेपियन्स, अफ्रीका से भारतीय उपमहाद्वीप में पहुँचे थे, जहाँ वे पहले विकसित हुए थे। [2][3][4] सबसे पुराना ज्ञात आधुनिक मानव आज से लगभग 30,000 वर्ष पहले दक्षिण एशिया में रहता है। [5] 6500 ईसा पूर्व के बाद, खाद्य फसलों और जानवरों के वर्चस्व के लिए सबूत...
भारतीय इतिहास का भौगोलिक पृष्ठभूमि (Geographical Background of Indian History): हिमालय पर्वत के दक्षिण तथा हिन्द महासागर के उत्तर में स्थित एशिया महाद्वीप का विशाल प्रायद्वीप भारत कहा जाता है । इसका विस्तृत भूखण्ड, जिसे एक उपमहाद्वीप कहा जाता है, आकार में विषम चतुर्भुज जैसा है ।.
History of India in Hindi - जानिए भारत का प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास , पूर्व ऐतिहासिक काल, पाषाण काल, प्रारंभिक ऐतिहासिक काल, वैदिक काल ...
Bharat ka Itihas: भारत का इतिहास विश्व के सबसे प्राचीन और समृद्ध इतिहासों में से एक है, जिसने भूतकाल की कई घटनाओं को खुद में समेत कर रख रखा है। भारत के इतिहास के बारे में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह केवल घटनाओं की श्रृंखला नहीं है, बल्कि इसमें सभ्यता, संस्कृति, धर्म, राजनीति, और समाज का विकास समाहित है। भारत का इतिहास विवधताओं और समय-समय पर आ...
ये सारे History Notes सिविल सेवा (IAS) परीक्षार्थियों के लिए हैं. आप चाहें तो हर नोट्स को खोलकर उसका PDF भी डाउनलोड कर सकते हैं. अधिकांश आर्टिकल को हमारे टीम ने NCERT, NIOS आदि किताबों का सहयोग लेकर तैयार किया है. इस पेज पर प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक, विश्व इतिहास के साथ-साथ आपको कला एवं संस्कृति की भी अध्ययन-सामग्री (study material) प्राप्त होगी.
भारत एक महान देश है जिसका इतिहास इतना समृद्ध है कि आपको हर कोने में छुपा हुआ मिलेगा। इतिहास का अध्ययन करने पर हम ये जान पाते हैं कि हमारे देश में सभ्यता और संस्कृति कैसे विकसित हुई, धर्म और धार्मिक व्यवहार कैसे अस्तित्व में आये या फिर कौन कौन सी कई ऐसी ऐतिहासिक घटनाएं घटित हुई है। भारतीय इतिहास की शुरुआत हज़ारों साल पहले होमो सेपियन्स के साथ हुई...
भारतीय इतिहास की जड़ें काफी गहरे तक अपनी पकड़ जमाए हुए हैं, जिसे जानना आज के युवाओं के लिए बेहद आवश्यक है। भारत का इतिहास एक ऐसा रोचक, तथ्यात्मक और महत्त्वपूर्ण विषय है जिसपर जितना पढ़ा और लिखा जाए उतना ही कम है। इस लेख में भारतीय इतिहास के प्राचीन, मध्य और आधुनिक काल को समझने का प्रयास किया गया है। वर्तमान भारत, भारतीय इतिहास और परंपराओं के आधार ...
आज के इस लेख में हम आपको आधुनिक भारत का इतिहास (Modern History of India in Hindi) बताएँगे। भारतीय इतिहास काफी ज्यादा समृद्ध है और अन्य देशों के मुकाबले भारतीय इतिहास काफी ज्यादा विस्तृत भी है। इस लेख को विद्यार्थी एक निबंध के रूप में भी परीक्षा में लिख सकते हैं।.
Answer:- Indian History Timeline in Hindi is broadly divided into three categories – Ancient History, Medieval History and Modern History. Q. What is history?