सिपाही पर निबंध / Essay on Policeman in Hindi
सिपाही पर निबंध / Essay on Policeman in Hindi!
सिपाही किसी भी समाज का सहायक सदस्य होता है । यह अपराधियों का शत्रु तथा आम नागरिकों का मित्र होता है । समाज में शांति बनाए रखने के लिए सिपाही या पुलिसमैन की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है । यह चोरों, डाकुओं और अपराधियों को पकड़ पर समाज को सुरक्षा प्रदान करता है ।
सिपाही स्थानीय पुलिस विभाग का सदस्य होता है । भारत में सिपाहियों की नियुक्ति प्रांतीय सरकार द्वारा की जाती है । ये शारीरिक रूप से सक्षम और राइफल, पिस्तौल आदि चलाने में निपुण होते हैं । इसके लिए इन्हें बहाल करने के पश्चात् प्रशिक्षण दिया जाता है । प्रशिक्षण पूरा होने पर उन्हें कार्यस्थल पर तैनात कर दिया जाता है ।
सिपाही का काम बहुत महत्त्व का है । उसकी लापरवाही से समाज में अशांति फैल सकती है । उसकी मुस्तैदी से समाज के सम्मानित सदस्य सिर ऊँचा करके जी सकते हैं । वह यदि चोरों को न पकड़े तो वे निर्भय होकर चोरी करें और जनता अपनी गाड़ी संपत्ति गँवा दे । वह डकैतों को गिरफ्तार न करे तो दिन-दहाड़े लूट और डकैती होने लगे । पॉकेटमारों की तो चाँदी ही होने लगे । बस और ट्रेनों में यात्रा करना दूभर हो जाए ।
पुलिस असावधान रहे तो लोग कानून न मानें और हर कोई अपनी मनमानी करने लगे । हत्या, बलात्कार, अपहरण, छुरीबाजी आदि घटनाओं की संख्या बढ़ जाए । पुलिस के निकम्मेपन का देशद्रोही जमकर लाभ उठाने लगें । आतंकवाद सिर चढ़कर बोले । दबंग लोग निर्बलों पर अत्याचार करने लगें । अपराधी बेखौफ घूमे और निर्दोषों को परेशान करें ।
सिपाही अपनी खास वर्दी में ड्यूटी करता है । उसकी वर्दी खाकी होती है । वर्दी पर उसका नाम और पद लिखा होता है । उसके सिर पर एक टोपी होती है । उसके हाथ में डंडा या राइफल होती है । पैरों में यह बूट पहनता है । वह आम तौर पर हृष्ट-पुष्ट और रोबीला दिखाई देता है । लोग उसे दूर से ही पहचान लेते हैं । वह कभी पुलिस चौकी पर ड्यूटी करता है, तो कभी भीड़- भाड़ वाले स्थानों पर । यह जीप पर सवार होकर क्षेत्र की निगरानी करता है ।
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मेले, समारोहों और जलसों पर उसकी तैनाती सुरक्षा के लिहाज से की जाती है । कहीं खेल हो रहा हो या राजनीतिक सभा चल रही हो, उसकी उपस्थिति व्यवस्था को बनाए रखने में सहायक होती है । आतंकवाद के बढ़ते खतरे को देखते हुए पुलिस की भूमिका और भी बढ़ गई है ।
पुलिस अपराधियों की खोजबीन में हमेशा तत्पर रहती है । वह अपराधियों को पकड़कर पुलिस चौकी ले आती है । वहाँ उनसे सघन पूछताछ की जाती है । फिर मामला बनाकर उन्हें न्यायालय के समक्ष लाया जाता है । अपराधियों को सजा देने का काम न्यायालय का है । पुलिस न्यायालय के आदेश को मानते हुए उसके निर्देशानुसार कार्य करती है । पुलिस आरोपी के विरुद्ध सबूत इकट्ठा करती है । सबूतों के आधार पर ही अपराधी के भाग्य का फैसला होता है ।
सिपाही को बहुत श्रम करना पड़ता है । उसे ड्यूटी पर हमेशा सजग रहना पड़ता है । उसे भूख-प्यास और बुरे मौसम की मार झेलनी पड़ती है । ड्यूटी में हुई चूक की उसे कीमत चुकानी पड़ती है । उसे अपराधियों से भिड़ते समय जान हथेली पर रखकर कार्य करना होता है । उसे अफसरों की डाँट खानी पड़ती है । उसे आम जनता के क्रोध का शिकार भी बनना पड़ता है । कभी-कभी तो वह बलि का बकरा बन जाता है ।
सिपाही का एक महत्त्वपूर्ण काम यातायात को नियंत्रित करना है । यातायात पुलिस के जवान शहरों में चौराहों पर तैनात रहते हैं । वे सीटी बजाकर तथा हाथ के इशारे से ट्रैफिक को जाने या रुकने का निर्देश देते हैं । वे वाहनों की तलाशी लेते हैं । वे लोगों से यातायात के नियमों का पालन करवाते हैं ।
बढ़ती जनसंख्या के साथ-साथ अपराध का ग्राफ भी तेजी से बढ़ रहा है । इसके साथ-साथ जिम्मेदारियाँ भी बढ़ रही हैं । वह जिम्मेदारियों को पूरा कर सके इसके लिए उसे अच्छी ट्रेनिंग दी जानी चाहिए । उसे आधुनिक हथियारों से सुसज्जित कर देना चाहिए । उसे आकर्षक वेतन एवं अच्छी सुविधाएँ दी जानी चाहिए ।
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सिपाही / रामधारी सिंह "दिनकर"
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वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ, ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ। जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना, सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना। मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है, जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है? इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी, विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी? जग भूले पर मुझे एक, बस सेवा धर्म निभाना है, जिसकी है यह देह उसी में इसे मिला मिट जाना है। विजय-विटप को विकच देख जिस दिन तुम हृदय जुड़ाओगे, फूलों में शोणित की लाली कभी समझ क्या पाओगे? वह लाली हर प्रात क्षितिज पर आ कर तुम्हे जगायेगी, सायंकाल नमन कर माँ को तिमिर बीच खो जायेगी। देव करेंगे विनय किंतु, क्या स्वर्ग बीच रुक पाऊंगा? किसी रात चुपके उल्का बन कूद भूमि पर आऊंगा। तुम न जान पाओगे, पर, मैं रोज खिलूंगा इधर-उधर, कभी फूल की पंखुड़ियाँ बन, कभी एक पत्ती बन कर। अपनी राह चली जायेगी वीरों की सेना रण में, रह जाऊंगा मौन वृंत पर, सोच न जाने क्या मन में! तप्त वेग धमनी का बन कर कभी संग मैं हो लूंगा, कभी चरण तल की मिट्टी में छिप कर जय जय बोलूंगा। अगले युग की अनी कपिध्वज जिस दिन प्रलय मचाएगी, मैं गरजूंगा ध्वजा-श्रंग पर, वह पहचान न पायेगी। 'न्यौछावर मैं एक फूल पर', जग की ऎसी रीत कहाँ? एक पंक्ति मेरी सुधि में भी, सस्ते इतने गीत कहाँ? कविते! देखो विजन विपिन में वन्य कुसुम का मुरझाना, व्यर्थ न होगा इस समाधि पर दो आँसू कण बरसाना।
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मुंशी प्रेमचंद की जीवनी ‘कलम का सिपाही’: बाल-विधवा कन्या की शादी की अनोखी कहानी
मुंशी प्रेमचंद की जीवनी को उनके पुत्र और लेखक अमृत राय ने लिखा है. उन्होंने लिखा है कि अपने समय को खुली आंखों देखने और निर्भय होकर अपनी राय रखने वाले प्रेमचंद इस जीवनी में हर कोण से प्रकाशित हैं..
लिहाज़ा जब यह सब खटराग रहना ही है तो इसका सुख भी कुछ क्यों न उठाया जाए. वह तो शादी बुरी हुई, बिलकुल नाकाम रही, बड़ा दुख दिया उसने. लेकिन अब तो ख़ैर उससे नाता टूट गया. अच्छा ही हुआ. मन थोड़ा हल्का था, मगर कुछ था जो करक रहा था.
कायस्थों में लड़कियों की कुछ कमी न थी, और नवाब उस वक़्त एक हंसमुख, जिन्दादिल, स्वस्थ और सुन्दर, खाता-कमाता नौजवान था. चाची शादी करने के लिए पीछे पड़ी थीं और जेब से कुछ खर्चे बग़ैर एक हसीन और बाशऊर बीवी मिली जाती थी. नौजवान नवाब उसके सपने भी देखने लगा था. लेकिन फिर आदमी का विवेक भी तो है. कैसे रचा ले वह उस तरह का ब्याह! ऐसी बड़ी-बड़ी बातें अभी उसने अपनी किताब में लिखीं और जब अपनी बारी आई तो भूल जाए उन सब बातों को? नहीं, उसके लिए तो यही उचित है कि अगर उसे दुबारा शादी करनी ही हो तो किसी विधवा लड़की से करे, वह ख़ुद कहां का कुंआरा है! न रहा हो उससे सम्बन्ध तो क्या, ब्याह तो हुआ. यही सब बातें सलाह करने की थीं.
आख़िरकार, मुंशी दयानरायन के शब्दों में, ‘शादी के बारे में बड़े सोच-विचार और बहुत कुछ बहस-मुबाहसे के बाद उन्होंने तय किया कि दूसरी शादी की जाए तो किसी विधवा ही से की जाए.’ घरवाले, ख़ासकर चाची, विधवा-विवाह के बहुत खिलाफ़ थीं. इस तरह की चीज़ घर में पहले कभी न हुई थी. बिरादरीवाले क्या कहेंगे! नाक कट जाएगी! लोग कहेंगे ज़रूर कोई ऐब है लड़के में तभी तो कुंआरी लड़की नहीं मिली बिरादरी में, वर्ना क्यों करता विधवा लड़की से ब्याह! चाची उन दिनों नवाब के साथ ही कानपुर में रह रही थीं और नवाब कुछ दिनों से, नाजुक तबीयत के, लम्बे छरहरे मुंशी नौबतराय ‘नज़र’ और एक महराजिन के साथ दयानरायन साहब के घर के पास ही मकान लेकर रह रहे थे. हर रोज़ घर में शादी का मसला छिड़ता और इसी तरह की बातें होतीं. कभी-कभी तो नवाब की तबीयत इतना ज़्यादा भिन्ना जाती कि वह शादी से बाज आने की बात सोचने लगता. लेकिन कुछ तो उम्र का तक़ाज़ा और कुछ उसकी घरेलू ढंग की तबीयत, शादी कर लेना ही उसने तय कया. लेकिन अपने इस इरादे पर वह अटल था कि विधवा ही से शादी करेगा. दूसरों की मुंहदेखी मैं नहीं कर सकता. मुझे जो बात ठीक मालूम होती है, वही मैं करूंगा, जिसे शरीक होना हो, हो, न होना हो, न हो.
तभी संयोग से एक रोज़ नवाब की नज़र किसी अख़बार में, शायद बरेली के आर्यसमाजी शंकरलाल श्रोत्रिय के पर्चे में छपे हुए एक इश्तहार पर पड़ी जिसमें लिखा था कि मौजा सलेमपुर डाकखाना कनवार ज़िला फतेहपुर के कोई मुंशी देवीप्रसाद अपनी बाल-विधवा कन्या का विवाह करना चाहते हैं और जो सज्जन चाहें इस विषय में उक्त पते पर पत्र-व्यवहार कर सकते हैं.
नवाब ने फ़ौरन उस पते पर ख़त लिखा. उसके जवाब में ख़त के साथ पच्चीस-तीस पन्ने का एक किताबचा आया. यह किताबचा अगर और किसी वजह से नहीं तो अपनी लेखन शैली के कारण एक मार्के का और बहुत दिलचस्प दस्तावेज़ है. लेकिन और भी बड़ी बात यह है कि उससे बहुत मज़े की रोशनी उस कायस्थ समाज पर पड़ती है जिसमें नवाब का जन्म हुआ, जिसके बीच वह पला-बढ़ा और जिसके माध्यम से उसने सबसे पहले हिन्दू समाज के मसलों को समझा. जिस समाज के अन्दर से यह दस्तावेज़ पैदा हुआ वही नवाबराय का पहला और बुनियादी समाज है. वही उसकी ज़बान है और वही उसके सोचने-विचारने का ढंग. बाद में उसकी निगाह भी फैली और उसका समाज भी फैला, ताहम उसकी घुट्टी में यही समाज था.
किताबचे पर उसका नाम दिया है, ‘कायस्थ बाल विधवा उद्धारक’ और उसके नीचे यह इबारत है— मूर्ख गुपनाम द्वारा लिखित जिसको मुंशी गजाधरप्रसाद नायब नाजिर दीवानी ने यूनियन प्रेस, इलाहाबाद में छपवाकर प्रकाशित किया. 1905.
गुप्त नाम से किताबचे को लिखना और एक अज़ीज़ के नाम से उसको छपवाना, यह सब कार्रवाई थी उन्हीं मुंशी देवीप्रसाद की जो अपनी बाल-विधवा कन्या शिवरानी का पुनर्विवाह करना चाहते थे. यह मुंशी देवीप्रसाद अपने गांव के एक बहुत प्रभावशाली व्यक्ति थे. पैसा तो कुछ ख़ास न था मगर इज़्ज़त बहुत थी. दिमाग़ तो वैसा ही पाया था जैसी कि कायस्थ खोपड़ी मशहूर है मगर साथ ही मिज़ाज में कुछ ठाकुरों जैसा अक्खड़पन भी था. दबंग कड़ियल आदमी थे. बहुत शरीफ़, पुराने ढंग के वज़ादार, न तो ख़ुद किसी से बेअदबी करते थे और न किसी की बेअदबी बर्दाश्त करते थे. दोस्ती की टेक निभाना भी जानते थे और दुश्मन को नेस्तनाबूद करने में भी पीछे न रहते थे. उनके तीन लड़के थे और दो लड़कियां. दोनों लड़कियों का ब्याह उन्होंने छुटपन में ही, दस-ग्यारह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते कर दिया था. किस्मत का खेल कुछ ऐसा हुआ कि छोटी लड़की शिवरानी ब्याह के तीन महीने बाद ही विधवा हो गई. न तो वह पति के घर गई और न उसने पति का मुंह देखा, मगर फिर भी वह विधवा थी और यह उनकी जिन्दगी का सबसे बड़ा ग़म था. मां-बाप दोनों अपनी इस बेटी का मुंह देखते और कलेजा थाम लेते थे. आख़िरकार बहुत पसोपेश के बाद दोनों ने अपने मन में इस बात का फ़ैसला कर लिया कि हम अपनी बेटी का ब्याह फिर से करेंगे. आज भी यह काम आसान नहीं है, पचपन बरस पहले तो वह बग़ावत से कम न था. लेकिन मुंशी देवीप्रसाद अब इस बग़ावत पर आमादा थे. अपनी बेटी का दुख उनसे देखा न जाता था. होगा समाज का विरोध, डटकर होगा— हो. जो होगा देखा जाएगा. एक बार फ़ैसला कर लेने पर पीछे क़दम हटानेवाले आदमी मुंशी देवीप्रसाद न थे. बिरादरी का एक-एक आदमी हमें छोड़ दे, तो भी यह ब्याह होगा. और चोरी-छिपे न होगा, इश्तहार बंटवाकर होगा. सब लोग जान जाएं कि मुंशी देवीप्रसाद अपनी विधवा कन्या का विवाह फिर से कर रहे हैं.
लेकिन इसके लिए ज़रूरी था कि सबसे पहले इस काम के लिए फिज़ा तैयार की जाए. मुक़दमे में कूदने के पहले अपने काग़ज़ात सब ठीक कर लेने चाहिए ताकि बाद में बग़लें न झांकनी पड़ें. इसी ख़याल से यह इश्तहारी पर्चा हिन्दी और उर्दू में तैयार किया गया और उसे काफ़ी बड़ी संख्या में छपवाकर दूर-दूर तक भेज दिया गया. जिसे एतराज करना हो, करे; आए हमसे बहस करे, या तो वह मुझे क़ायल कर दे कि मैं ग़लत काम कर रहा हूं या मैं उसे वेद-पुराण और शास्त्रों की नज़ीर देकर क़ायल कर दूंगा कि ठीक बात यही है, बाक़ी सब तो पोंगा ब्राह्मणों का खेल है.
किताबचा बिलकुल आर्यसमाजी अन्दाज़ में ओउम्तत्सत् के साथ शुरू होता है और उसी रंग में आगे बढ़ता है— प्रार्थना पत्र खिदमत में सब भाइयों कायस्थ चित्रगुप्तवंशी के पहुंचकर सुशोभित हो, परमात्मा रोज़-ब-रोज़ तरक़्क़ी देवे. दरख़्वास्त वास्ते सुधार करने चाल-चलन ब्योहार जो क़ाबिल सुधार करने के है कि जो न सुधार चाल-चलन करने से महापातक होता है कि सब भाइयों को मालूम है और देखते हैं शास्त्रोक्त प्रमाण व वेदाज्ञानुसार सब भाइयों के सामने इस पत्र द्वारा प्रकाशित करता हूं अपने-अपने ज्ञान बुद्धि से ध्यान देकर उनके सुधारने में दिल व जान से मुस्तैद हो जाइए. हे मेरे प्यारे क़ौमी भाइयो कायस्थ चित्रगुप्तवंशी ज़रा ध्यान देकर सुनिए कि पद्म पुराण एक प्राचीन पुराण व मुस्तनिद किताब है जिससे साबित है कि बाबा चित्रगुप्त पुरुषा याने मूरिस आला सब भाइयों के हैं और जब से सृष्टि की रचना हुई बदर्बार महाराज धर्मराज के न्यायकारी व आमाल नेक व बद जो जैसा काम करता है, तहरीर फ़रमाया करते हैं वा उसी के मुताबिक़ सज़ा व जज़ा याने स्वर्ग व नर्क तजवीज़ फ़र्माते हैं.
उन्हीं बाबा चित्रगुप्त जी के पुण्य व प्रताप व आशीर्वाद से सब उनकी औलादें कि जिनके सन्तान व वंश में सब भाई हैं, वेदविद्या का पठन-पाठन करते रहैं, श्रेष्ठ कहलाते रहैं व वक़्त महाराज क्षत्रियों के राज्य समय में कायस्थ वंश भाई अपनी वेद विद्या व बुद्धि की लियाक़त से बड़े-बड़े ओहदों पर (न्यायाधीश) व राज्य कार्य के मंत्री व दीवान मुक़र्रर होते रहे और राज्य का इन्तिज़ाम माकूल करते रहे कि सबसे श्रेष्ठ व लायक़ समझे जाते रहे.
समय के उलट-फेर से कि ज़माना तरक़्क़ी का हमेशा किसी का एक ही तरह पर नहीं क़ायम रहा है, काल-चक्र घूमा करता है…राज्य हाथ से जाता रहा पाप कर्मों का प्रचार होता गया.
समाज का बराबर पतन होता गया और उसमें कोई सुधार इसलिए नहीं होता कि लोग बस अपने स्वार्थ के बन्दे हैं, किसी को अपने समाज के भले-बुरे की चिन्ता नहीं है और हैं तो बस लम्बी-चौड़ी बातें, कथनी कुछ और करनी कुछ— ‘जाबज़ा शहरों व क़स्बों व नामी मुक़ामात में क़ौमी सभा व कमेटी व कान्फ्रेंस वास्ते धर्म की रक्षा व क़ौमी चाल-चलन ब्यौहार व रीति रस्म के दुरुस्ती के लिए शास्त्रोक्त प्रमाण से मुक़र्रर फ़रमाया है और वहां व्याख्यान व लेक्चर धर्म सम्बन्धी दिए जाते हैं. और उस जलसा सभा में सब भाई बैठकर सुनते हैं और सत्य-सत्य कहते हैं, हां में हां गला मिलाते हैं और उन व्याख्यानों के अमल करने का न व्याख्यान देनेवालों के दिलों पर असर रहता है न व्याख्यान सुननेवाले के दिल पर असर पहुंचता है. यह तो मशहूर बात है कि जब तक कोई नसीहत याने उपदेश देनेवाला उस नसीहत व उपदेश का आमिल न होगा तब तक करनेवाला सुननेवाले के असर दिल पर नहीं पहुंचता कि अमल करे. वह यह कहता है कि ख़ुदरा फजीहत व दीगरां नसीहत करते हैं. बस हे मेरे प्यारे भाइयो जब सभा विसर्जन करके श्रोता-वक्ता भाई साहेबान बाहर तशरीफ़ लाए तो न उस व्याख्यान की सुध है न उसके ध्यान की ख़बर है…’
और आख़िरकार इस सबका वही नतीजा हुआ जो होना था, सारी शेख़ी किरकिरी हो गई, अब— ‘न वह बूट जूता है न कोट पतलून है न गुलूबन्द है न टोपी पेटारीदार दस्तार है बल्कि रय्यार है पैरों में खार है जामाज़ीस्त से बेज़ार हैं घर की हालत कहना अनुचित प्रमात्मा रक्षपाल है धिक्कार धिक्कार धिक्कार आख़ थू आख़ थू आख़ थू घमंड पर है…’
इतनी लानत-मलामत के बाद जो कि सब पेशबन्दी है, किताबचा असल बात पर आता है— हे मेरे सजातीय भाई कायस्थ चित्रगुप्तवंशी क्या आप लोग अपने-अपने प्रत्यक्ष नेत्रों से यह न देखते होंगे कि जिन कन्याओं का विवाह हो गया है और दिरागमन याने गौना नहीं हुआ पति याने शौहर उनका मर गया है तो वह बाल विधवा बेचारी नाकर्दे गुनाह अपनी-अपनी जिन्दगी किस-किस मुसीबत से काटती हैं…दूसरे वह कन्याएं कि जिनका विवाह और दिरागमन दोनों हो गया है बहुत ही थोड़े दिन के बाद पति उनके मर गए हैं. कुछ भी जिन्दगी का लुत्फ़ नहीं उठाया यहां तक कि सन्तान उत्पन्न होने की नौबत नहीं. तो उन बेचारियों की मुसीबत कहने में नहीं आ सकती है. उनका घर में रहना माइका क्या ससुराल दोनों ही जगह के सहकुटुम्बी माता व पिता व भ्राता सब पर पहाड़ का ऐसा बोझ भार सिर पर मालूम होता है. ग़रज़ कि दोनों किसिम के बाल विधवा कन्या कि जिनका विवाह मात्र हुआ है दिरागमन नहीं हुआ और शास्त्र के अनुसार उनका कन्यात्व नष्ट नहीं हुआ वह मिसिल क्वांरी कन्या के हैं….हे मेरे भाइयो जांच करने से मालूम हुआ है व देखने में आया है कि उन कन्याओं दोनों किसिम की कि कुछ तो मुसीबत खाने-पीने से कुछ सतसंग पाकर कुछ काम के वश होकर कि कामदेव बड़ा बली शैतान है मतिभ्रम कर देता है कि बड़े-बड़े मुनियों और महात्मा के हृदय में क्षोभ कर दिया है और भला इन अबलाओं की क्या गिनती है व्यभिचार करने लगती हैं याने बहुतों का कस्बी हो जाना और बहुतों का घर ही में बदचलन हो जाना व बहुतों का अन्य पुरुष विरुद्ध वर्ण याने दूसरे जात के साथ निकल जाना बहुतों के हमल-हराम रह जाना व उसका इसक़ात हमल कराना बालक का मारना वग़ैरा वग़ैरा कहां तक कहा जावै बड़े-बड़े घोर पाप होते हैं व हो गए कि सुनि अघ नर्कहु नाक सकोरी. संसार में रूसियाही बल्कि पुश्तों तक का ऐसा दाग़ धब्बा लग जाता है कि उसका मिटाना बहुत कठिन हो जाता है….
(फर्याद बाल विधवा कन्याओं की) हे मेरे सजातीय कायस्थ चित्रगुप्तवंशी आप लोग ग़ौर करके बिला पक्षपात के इंसाफ़ कीजिए कि जब किसी पुरुष की स्त्री मर जाती है तो वह पुरुष दो-दो अथवा तीन-तीन विवाह कर लेने का अधिकारी होता है और हम बाल विधवाओं ने जो पति के पास तक नहीं गई हैं और पति का मुंह तक नहीं देखा है पुनर्विवाह हमारे करने में आप लोग लज्जा व घृणा करते हो…क्या पुरुष को काम प्रबल अधिक सताता है और हम काम को जीते हुए हैं. हे भाइयो, हम स्त्रियों का नाम ही कामिनी है. वैदक शास्त्र से ज़ाहिर है कि पुरुष से दुगुण अधिक काम अग्नि स्त्री के होती है…
इसके बाद फिर ऋग्वेद, यजुर्वेद, वशिष्ठस्मृति, नारदस्मृति, प्रजापतिस्मृति, कात्यायनस्मृति, मनुस्मृति आदि शास्त्रों से प्रमाण पर प्रमाण जुटाये गए हैं कि किन-किन दशाओं में विधवा का पुनर्विवाह सम्भव है, उचित है.
नवाब ने इस इश्तहार को पढ़ा तो उसकी तबीयत फड़क उठी. इस सवाल पर ख़ुद उसके विचारों से यह चीज़ कितना मेल खाती थी! उसने फ़ौरन लड़की की फ़ोटो की फ़रमाइश की.
देहात में तसवीर उतरवाने का तब कहां चलन, मगर ख़ैर मुंशी देवीप्रसाद ने अपनी लड़की की तसवीर उतरवाकर कानपुर भेजी— सीधी-सादी, दुबली-पतली एक देहाती लड़की, बाल बिखरे हुए, माथे पर हल्का-सा घूंघट. गन्दुमी रंग जो नवाब के तपे सोने जैसे रंग के मुक़ाबले में काफ़ी दबा हुआ था, नाक-नक़्श भी बहुत मामूली, कोई ख़ास बात नहीं, जब कि नवाब यक़ीनन दस-पांच हज़ार में एक ख़ूबसूरत नौजवान था. लेकिन उसे सुन्दरी की तलाश न थी— उसके नखरे उठाने की सकत भी उसमें कहां थी! वह तो एक सीधी-सादी घरेलू लड़की चाहता था जो उसके संग तकलीफ़-आराम झेल सके. यह लड़की, जहां तक देखने में आता था, वैसी ही थी. मुंशी दयानरायन से भी शायद मशविरा हुआ और फिर नवाब ने अपनी रज़ामन्दी लिख भेजी. अब मुंशी देवीप्रसाद ने लड़के को देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर की और उसे फतेहपुर बुलाया. नवाब पहुंचा. ससुर ने भी दामाद को पसन्द किया. ज़्यादा अब तंग करने के लिए था भी क्या. लेन-देन की कोई बात ही न थी. शादी उसी दम तय हो गई. दोनों पक्ष समझ रहे थे कि उन्हें अपनी-अपनी बिरादरी का विरोध सहना पड़ेगा और दोनों तैयार थे.
आख़िर 1906 के फागुन में शिवरात्रि के रोज़ शादी हो गई. नवाब के साथ बारात में, एक उनके छोटे भाई महताब को छोड़कर और कोई रिश्तेदार न था, बस दो-चार दोस्त और हमजोली जिनमें मुंशी दयानरायन ख़ास थे.
(मुंशी प्रेमचंद की जीवनी के लेखक अमृत राय हैं जो उनके पुत्र थे. इस किताब को हंस प्रकाशन ने छापा है, जो अब राजकमल प्रकाशन समूह का हिस्सा है. किताब का यह अंश प्रकाशन की अनुमति से छापा जा रहा है)
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सिपाही: वीर जवानों की शहादत पर भावुक कर देने वाली कविता
Manoj Muntashir July 28, 2021 Poems In Hindi 6,623 Views
अजय देवगन ने ‘मनोज मुंतशिर’ की नई कविता में बयां किया वीर जवानों की शहादत की भावुक कर देने वाली कहानी
बॉलीवुड में अपने दमदार अभिनय का लोहा मनवाने वाले एक्टर अजय देवगन इंडस्ट्री के जाने माने एक्टर हैं। अजय ने अपने करियर में अबतक कई तरह के रोल को पर्दे पर जिया है। अजय न सिर्फ एक अच्छे एक्टर हैं बल्कि एक सच्चे देश भक्त भी हैं। इस बात का सबूत उन्होंने अपनी हाल ही में दिया। अजय ने अपनी कविता ‘सिपाही’ के जरिए भारतीय जवानों को श्रद्धांजलि दी है। उनकी ये कविता काफी भावुक कर देने वाली है। इस कविता के जरिए उन्होंने देश के वीर जवानों की शहादत की कहानी को बयां किया है।
सिपाही : मनोज मुंतशिर
सरहद पे गोली खाके जब टूट जाए मेरी सांस मुझे भेज देना यारों मेरी बूढ़ी मां के पास
बड़ा शौक था उसे मैं घोड़ी चढूं धमाधम ढोल बजे तो ऐसा ही करना मुझे घोड़ी पे लेके जाना ढोलकें बजाना पूरे गांव में घुमाना और मां से कहना बेटा दूल्हा बनकर आया है बहू नहीं ला पाया तो क्या बारात तो लाया है
मेरे बाबूजी, पुराने फ़ौजी, बड़े मनमौजी कहते थे – बच्चे, तिरंगा लहरा के आना या तिरंगे में लिपट के आना कह देना उनसे, उनकी बात रख ली दुश्मन को पीठ नहीं दिखाई आख़िरी गोली भी सीने पे खाई
मेरा छोटा भाई, उससे कहना क्या मेरा वादा निभाएगा मैं सरहदों से बोल कर आया था कि एक बेटा जाएगा तो दूसरा आएगा
मेरी छोटी बहना, उससे कहना मुझे याद था उसका तोहफ़ा लेकिन अजीब इत्तेफ़ाक़ हो गया भाई राखी से पहले ही राख हो गया
वो कुएं के सामने वाला घर दो घड़ी के लिए वहां ज़रूर ठहरना वहीं तो रहती है वो जिसके साथ जीने मरने का वादा किया था उससे कहना भारत मां का साथ निभाने में उसका साथ छूट गया एक वादे के लिए दूसरा वादा टूट गया
बस एक आख़िरी गुज़ारिश आख़िरी ख़्वाहिश मेरी मौत का मातम न करना मैने ख़ुद ये शहादत चाही है मैं जीता हूं मरने के लिए मेरा नाम सिपाही है
~ मनोज मुंतशिर
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सिपाही की माँ पाठ का सारांश
सिपाही की माँ पाठ लेखक परिचय.
लेखक – मोहन राकेश
जन्म – 8 जनवरी, 1925
निधन – 3 जनवरी, 1972
जन्म स्थान – अमृतसर, पंजाब
मोहन राकेश की रचनाएँ
- उपन्यास – अंधेरे बंद कमरे, अन्तराल, न आने वाला कल।
- कहानी संग्रह – क्वार्टर तथा अन्य कहानियाँ, पहचान तथा अन्य कहानियाँ, वारिस तथा अन्य कहानियाँ
- नाटक – आषाढ़ का एक दिन, लहरों के राजहंस, आधे अधूरे, पैर तले की जमीन (अधूरा, कमलेश्वर ने पूरा किया) ।
सिपाही की माँ पाठ का सारांश लिखिए
मोहन राकेश की प्रस्तुत मार्मिक रचना में निम्न मध्यवर्ग की एक ऐसी माँ – बेटी की कथावस्तु प्रस्तुत है जिनके घर का इकलौता लड़का सिपाही के रूप में द्वितीय विश्वयुद्ध के मोर्चे पर बर्मा में लड़ने गया है । वह अपनी माँ का इकलौता बेटा और विवाह के लिए तैयार अपनी बहन का इकलौता भाई है । उसी पर घर की पूरी आशा टिकी हुई है । वह लड़ाई के मोर्चे से कमाकर लौटे तो बहन के हाथ पीले हो सकें । माँ एक देहाती भोली स्त्री है , वह यह भी नहीं जानती कि बर्मा उसके गाँव से कितनी दूर है और लड़ाई कैसी , किनसे और किसलिए हो रही है । उसका अंजाम ऐसा भी हो सकता है कि सबकुछ खत्म हो जाए – ऐसा वह सोच भी नहीं सकती । माँ और छाया की तरह उससे लगी बेटी के भीतर की वह आशा जो बेटे से जुड़ी हुई है अनेक रूप – रंग ग्रहण करती है । उसकी सम्पूर्ण नाटकीयता और रंग सम्भावनाओं का लेखक ने ऐसा उद्घाटन किया है कि रचना के अंत में एक विषाद मन पर स्थायी प्रभाव छोड़ जाता है ।
बिशनी मोहन राकेश द्वारा लिखित ‘ सिपाही की माँ ‘ शीर्षक एकांकी का प्रमुख महिला पात्र है । एकांकी के शीर्षक से ही यह स्पष्ट होता है कि बिशनी केवल मानक की माँ ही नहीं है बल्कि , वह किसी भी सिपाही की माँ है । सिपाही की माँ का गुण उसमें तब दिखाई पड़ता है जब वह स्वप्न में अपने सिपाही बेटे मानक एवं दुश्मन सिपाही में लड़ते हुए देखकर विचलित नहीं होती बल्कि वह हर हाल में अपने बेटे मानक को दुश्मन सिपाही से बचाती है । जब उसी का सिपाही बेटा दुश्मन ‘ सिपाही को मारना चाहता है तो यह कार्य भी उसे कतई पसन्द नहीं । वह दृढ़ता पूर्वक अपने मानक को दुश्मन सिपाही को मारने से रोकती है । वह मानक से कहती है कि वह भी हमारी तरह गरीब आदमी है । इसकी माँ इसके पीछे रो – रोकर पागल हो गयी है । इसके घर में बच्चा होनेवाला है । यह मर गया तो इसकी बीबी फाँसी लगाकर मर जायेगी । यहाँ बिशनी का चरित्र सबकी माँ के रूप में पाठक के सामने आया है । वह केवल मानक की माँ नहीं है । वह सबकी माँ है । वह किसी के बेटे को भी मरता देखना नहीं चाहती है । वह सही अर्थ में एक माँ है । इसलिए यह कहना उचित है कि बिशनी के मातृत्व में किसी भी सिपाही की माँ को ढूँढा जा सकता है । मोहन राकेश के ‘ सिपाही की माँ ‘ एकांकी नाटक में ऐसे बहुत से दृश्य उभरकर आते हैं जिनमें रंग – संयोजन या निर्देशन का सफल प्रयोग हुआ है । कई दृश्य इतने मार्मिक हैं कि वे बहुत देर तक मन – मस्तिष्क पर अपनी आभा छोड़े बिना नहीं रहते । मार्मिक प्रसंगों द्वारा एक से बढ़कर एक दृश्य उभरकर बेचैनी पैदा कर देते हैं । जेहन में चिंतन की रेखाएँ साफ दिखायी पड़ती है ।
सिपाही की माँ पाठ से आपके परीक्षा में आने वाले प्रश्न
- सिपाही की माँ पाठ का सारांश लिखें।
- सिपाही की माँ पाठ के लेखक कौन हैं ?
- मोहन राकेश का जन्म कब और कहाँ हुआ था ?
- सिपाही की माँ पाठ की विशेषताएँ
सिपाही की माँ मोहन राकेश, सिपाही की माँ के रचनाकार है, सिपाही की माँ कहानी का सारांश, मोहन राकेश की एकांकी का शीर्षक है सिपाही की माँ , sipahi ki maa kahani ka saransh, सिपाही की मां कौन थी, 12th hindi chapter 8, hindi class 12 chapter 8, bseb hindi 100 marks, 12th hindi model paper 2022, hindi 100 marks important summary 2022, science sangrah official website, science sangrah hindi 100 marks.
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Premchand: बचपन में बहुत शरारती था 'कलम का सिपाही', जब मां से पड़ी मार, पढ़ें पूरा किस्सा
'कलम का सिपाही' में आपको मुंशी अजायब लाल और आनंदी के बेटे धनपत राय या फिर नवाब के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद होने तक के ...अधिक पढ़ें
- Last Updated : July 12, 2021, 21:04 IST
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Munsi Premchand: कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (Premchand) की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ (Kalam Ka Sipahi) ने हिंदी के जीवनी साहित्य में अपनी खास जगह बनाई है. ‘कलम का सिपाही’ का ‘राजकमल प्रकाशन’ के ‘हंस प्रकाशन’ (Hans Prakashan) ने फिर से प्रकाशन किया है. इस बार ‘कलम का सिपाही’ की प्रस्तावना प्रेमचंद के पौत्र विद्वान आलोचक-लेखक आलोक राय (Alok Rai) ने लिखी है. ‘कलम का सिपाही’ का पहला संस्करण 1962 में प्रकाशित हुआ था.
‘कलम का सिपाही’ के जीवनीकार प्रेमचंद के पुत्र और ख्यात लेखक-कथाकार अमृतराय हैं. लेकिन उन्होंने यह जीवनी पुत्र होने के नाते नहीं, बल्कि एक लेखक की निष्पक्षता के साथ लिखी है.
प्रेमचन्द ने ‘हंस’ नाम की एक पत्रिका शुरू की थी. प्रेमचन्द के दूसरे बेटे अमृतराय ने 1948 में अपने प्रकाशन की शुरुआत की तो उसका नाम रखा—हंस प्रकाशन. पिछले वर्ष प्रेमचंद की जयंती 31 जुलाई, 2020 के दिन ‘हंस प्रकाशन’ हिंदी के बड़े प्रकाशन समूह ‘राजकमल प्रकाशन समूह’ (Rajkamal Prakashan) में शामिल हो गया.
‘कलम का सिपाही’ में आपको मुंशी अजायब लाल और आनंदी के बेटे धनपत राय या फिर नवाब के कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद होने तक के तमाम किस्से, घटनाएं और वार्तालाप पढ़ने को मिलेंगे. पेश है इसी जीवनी में से प्रेमचंद के बचपन के शरारत भरे रोचक किस्से-
प्रेमचंद का जन्म (Munshi Premchand Birthday) लमही के कच्चे पुश्तैनी मकान में सावन बदी 10 संवत् 1937, शनिवार 31 जुलाई, सन् 1880 को उस लड़के का जन्म हुआ जिसे बाद को दुनिया ने प्रेमचन्द के नाम से जाना. लड़का ख़ूब ही गोरा-चिट्टा था. सब बहुत ख़ुश थे. पिता ने हुलसकर उसका नाम रखा धनपत और ताऊ ने नवाब.
नवाब से छ:-सात साल बड़ी थी. उसको भी मां कुछ कम प्यार नहीं करती थी, लेकिन नवाब में तो जैसे उसके प्राण ही बसते थे. लड़का चंचल था, जिसे ‘टोनहा’ कहते हैं, हरदम झाड़-फूंक करवाती रहती, राई-नोन से नज़र उतरवाती रहती—और डिठौना तो नवाब को पांच-छ: साल की उम्र तक लगाया जाता रहा. मां का बस चलता तो वह कभी बेटे को अपने आंचल से अलग न होने देती.
साथी का कान काट लिया इस तरह बचपन के कुछ वर्ष, मां के प्यार की शीतल छांह में बहुत ही मधुर बीते. मां के लाड़ले थे और शरारत कहिए या चुहल, उनकी घुट्टी में पड़ी थी. आए दिन कुछ-न-कुछ हुआ करता और घर पर उलाहना पहुंचता. एक रोज़ ऐसा हुआ कि लड़के नाई-नाई खेल रहे थे. नवाब को शरारत सूझी, उसने ललान के ही एक लड़के रामू की हजामत बनाते-बनाते बांस की कमानी से उसका कान काट लिया. कान कटा तो ख़ैर नहीं, मगर ख़ून ज़रूर भलभल-भलभल बहने लगा. रामू रोता-पीटता अपनी मां के पास पहुंचा. मां ने बेटे के कान से ख़ून बहते देखा तो आगबबूला हो गई और एक हाथ से रामू को पकड़े झनकती-पटकती नवाब की मां के पास उलाहना देने पहुंची.
यह भी पढ़ें- भिखारी ठाकुर के जीवन से रू-ब-रू कराता संजीव का उपन्यास ‘सूत्रधार’
नवाब ने जैसे ही उसकी आवाज़ सुनी, खिड़की के पास दुबक गया. मां ने दुबकते हुए उसको देख लिया और पकड़कर चार झापड़ रसीद किए. पूछा—रामू का कान तूने क्यों काटा?
नवाब ने निहायत भोलेपन से जवाब दिया—पता नहीं कैसे कट गया, मैं तो उसकी हजामत बना रहा था!
नवाब का निशाना मशहूर फ़सल के दिनों में किसी के खेत में घुसकर ऊख तोड़ लाना, मटर उखाड़ लाना—यह तो रोज़ की बात थी. इसके लिए खेतवालों की गाली भी खानी पड़ती थी, लेकिन लगता है कि उन गालियों से ऊख और मीठी, मटर और मुलायम हो जाती थी! लमही चूंकि सदा से बहुत ग़रीब गांव रहा है, इसलिए कोई इस चीज़ को दरगुज़र भी न करता था और अक्सर इस बात का उलाहना आता. घर में डांट-फटकार भी होती लेकिन एक-दो रोज़ के बाद फिर वही रंग-ढंग.
ढेला चलाने में भी नवाब बहुत मीर थे, टिकोरे पेड़ में आते और उनकी चांदमारी शुरू हो जाती. ऐसा ताककर निशाना मारते कि दो-तीन ढेलों में आम ज़मीन पर नज़र आता. पेड़ का रखवाला चिल्लाता ही रह जाता और नवाब की मंडली आम बीन-बटोरकर चम्पत हो जाती. और सबसे ज़्यादा मज़ा तो निशानेबाज़ी में तब आता जब आम पकना शुरू हो जाते. तेज़ आंखें सब आम के पेड़ों को ताके रहतीं और जहां किसी डाल में कोई कोंपल दिखा नहीं कि ढेलेबाज़ी शुरू. मज़ाल है कि दो-तीन चक्कों में वह नीचे न आ जाए. रखवाला चिल्लाता है तो चिल्लाने दो, गाली देता है, देने दो, हमें आम से मतलब है कि उसकी गाली से! जब तक अपना लाठी-डंडा लेकर वह आएगा, हम कहीं के कहीं होंगे! अपनी मंडली में नवाब का निशाना मशहूर था, इस मामले में वह अपनी टोली के सारे लड़कों का सरताज था.
आज तक लोग उसका बखान करते हैं—वैसे ही जैसे उनके गुल्ली-डंडे का. सुनते हैं उनका टोल अच्छी तरह जमकर बैठ जाता था तो गुल्ली डेढ़ सौ गज की ख़बर लेती थी. लेकिन वह ज़रा बाद की बात है, अभी तो हाथ में इतना दम न था.
घर के सामने, जहां अब मुंशीजी का बनवाया हुआ अपना मकान है, एक बहुत ही पुराना, बहुत ही बड़ा इमली का पेड़ था. उसके नीचे लाला (महाबीर लाल) की मड़ैया तो थी ही, खेलने के लिए भी ख़ूब जगह थी, साफ़-सुथरी. वहां इमली के चियों और महुए के कोइनों से खेल होता और कबड्डी की पाली जमती. इसी तरह बचपन के सुहाने दिन बीत रहे थे, कभी लमही में तो कभी पिता के साथ कहीं और.
उस वक़्त नवाब क़रीब छ: साल के थे. आठवें साल में उनकी पढ़ाई शुरू हो गई थी, ठीक वही पढ़ाई जिसका कायस्थ घरानों में चलन था, उर्दू-फ़ारसी. लमही से मील-सवा मील की दूरी पर एक गांव है लालपुर. वहीं एक मौलवी साहब रहते थे जो पेशे से तो दर्ज़ी थे मगर मदरसा भी लगाते थे.
थोड़ी-सी पढ़ाई थी, ढेरों उछल-कूद. चिबिल्लेपन की इन्तहा नहीं. कभी बन्दर-भालू का नाच है तो कभी आपस में ही घुड़दौड़ हो रही है. रामू, रघुनाथ पिरथी, पदारथ, बांगुर, गोवर्धन और और भी न जाने कितने, पूरी फ़ौज थी. तीन महीने मुतवातिर आमों की ढेलेबाज़ी चलती. इतने कच्चे आम खाये जाते कि फ़सल भर चोपी लग-लगकर मुंह फदका रहता. आम में जाली पड़ जाती तो फिर पना भी शुरू हो जाता. किसी के यहां से नमक आता, किसी के यहां से जीरा, किसी के यहां से हींग, किसी के यहां से नई हंडिया के लिए पैसा. फिर कोई हंडिया लाने चला जाता, बाक़ी लोग बांस की पत्ती बटोरने में लग जाते. पास ही बंसवारी थी. फिर आग सुलगाई जाती, आम भूने जाते. पना बनाने का पूरा एक शास्त्र था और इस शास्त्र के दो ही एक आचार्य थे. उनमें नवाब नहीं थे. पर हां, हिस्सा लेने में सबसे आगे रहते थे. यह तो गर्मी का नक़्शा था.
जाड़े के दिनों में ढेरों ऊख तोड़ लाए. उसी में यह भी बाज़ी लगी हुई है कि ऊख की चेप कौन सबसे बड़ी निकाल सकता है! कभी कोल्हाड़े में चले गए जहां गुड़ बन रहा होता, वहां पनुए रस से (जो खोई को फिर से पानी में भिगोकर तैयार किया जाता है) तबीयत तर की या कच्चा गुड़ लेकर दांत से उसके लड़ने का मज़ा देखा.
पुस्तक- प्रेमचंद: कलम का सिपाही लेखक- अमृतराय प्रकाशन- हंस प्रकाशन (राजकमल प्रकाशन समूह) पृष्ठ- 591 मूल्य- 499
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सिपाही की आत्मकथा. Sipahi ki Aatmakatha. हर स्त्री-पुरुष जो थल सेना, वायु सेना और जल सेना में सेवारत हैं उसे सिपाही कहते हैं। रक्षा विभाग से सम्बन्ध बनाने के बाद सिपाही जरूरत पड़ने पर अपने देश की रक्षा के लिये मर-मिटने के लिये प्रतिबद्ध हो जाता.
सिपाही से सभी परिचित होते हैं । इसे आसानी से पहचाना जा सकता है। यह खाकी वर्दी पहनता है । इसके हाथ में एक डंडा या बन्दूक होती है। इसके सिर पर एक टोपी होती है । इसका काम कानन का पालन करना और करवाना है । यह भले आदमियों का दोस्त तथा अपराधियों का दुश्मन होता है । यह अपराधियों को पकड़कर कानून के हवाले कर देता है।.
Sipahi. सिपाही जनता का सेवक होता है। वह खाकी वर्दी पहनता है तथा सिर पर भी खाकी टोपी पहनता है। वह एक बेल्ट भी लगाता है जिस पर उसका नम्बर लिखा होता है। वह कानून व्यवस्था बनाए रखता है तथा लोगों को सहायता करता है। वह चोरों को पकड़ता है तथा रात में जगह-जगह गश्त लगाता है तथा कानून तोड़ने वालों को पकड़ कर सजा दिलाता है। सिपाही स्वस्थ तथा लम्बे होते हैं।.
सिपाही पर निबंध / Essay on Policeman in Hindi! सिपाही किसी भी समाज का सहायक सदस्य होता है । यह अपराधियों का शत्रु तथा आम नागरिकों का मित्र होता है । समाज में शांति बनाए रखने के लिए सिपाही या पुलिसमैन की भूमिका अति महत्त्वपूर्ण होती है । यह चोरों, डाकुओं और अपराधियों को पकड़ पर समाज को सुरक्षा प्रदान करता है ।.
देश का हमारा वीर सिपाही, तब भी सेवा का हाथ बढ़ाता है।. कहीं भूखा न रह जाए भारतवासी, अन्न दाना उन तक पहुंचता है।. मेरा वीर सिपाही है ऐसा, जंग में सीने पर गोली खाता है, देश की रक्षा खातिर अपना सर्वस्व लुटता है।. भूखों को भोजन करवाए, देश को आतंक से मुक्त कराए।. वायरस कहीं न बढ़ जाए, लोगो को विनम्रता से समझाए।. चेन से हम सब सो पाए,
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Munsi Premchand: कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद (Premchand) की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ (Kalam Ka Sipahi) ने हिंदी के जीवनी साहित्य में अपनी खास जगह बनाई है.